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________________ २८० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्तत्प्रसाबाधिगम्य लक्ष्मी धर्मे पुनर्मन्दारादरः स्यात् । सस्मारकृतघ्नः किमिहापरोऽस्ति रिक पुरोजन्मनि वा मनुष्यः ॥४४॥ भनं धर्मविक्षोपेम परभोगाय भूपतेः । पापं स्वात्मनि खायेत रेपिवधादिव ॥४९॥ पति देवदाविमो विद्यामहोदधेः सचिवात , घेष्टमानः । क्रियाः सर्वाः प्राप्नोति न पुनः स्थितः । दृष्ट्वैवं पौरुषर्षी शक्ति को दृष्टानहे महः ॥४॥ प्राप्त हुई है। अर्थात्-भाग्योदय से स्वये मिली है तब इस त्रिभुवनतिलक' नामके राजमहल में स्थित हुए श्राप के द्वारा निश्चिन्त रूप से भोगी जावे। ॥४३॥ हे राजन् ! जो मानष पुण्य-प्रसाद से लक्ष्मी प्राप्त करके भी पुनः पुण्यकर्म ( दानादि ) के संचय करने में शिथिल { आलसी) होता है, उससे दूसरा कौन पुरुष कृतघ्न है ? अपि तु यही कृतघ्न है एवं उससे दूसरा कौन पुरुष भविष्य जन्म में रिक्त (खाली–दरिद्र) होगा? अपितु कोई नहीं ॥४४॥ धर्म नष्ट करके ( अन्याय द्वारा प्राप्त किया हुआ राजा का धन दूसरे ( कुटुम्बी-आदि) द्वारा भोगा जाता है और राजा उसप्रकार पाप का भाजन होता है जिसप्रकार हाथी की शिकार करने से सिंह स्वयं पाप का भाजन ( पात्र)होता है। क्योंकि उसका मांस गीदड़-वगैरह जंगली जानवर खाते हैं। भावार्थ-नीतिकारों के ३.' उद्धरणों का भी यही अभिप्राय है ' ॥४५॥ पुरुषार्थ (उद्योग) वादी 'चार्याक अवलोकन' ( नास्तिक दर्शन का अनुयायी) नामक मंत्री का कथन-हे राजन् ! लोक में यह बात प्रत्यक्ष है कि उदामशील पुरुष समस्त भोजनादि कार्य प्राप्त करता है ( समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है) और निश्चल ( भाग्य भरोसे बैठा हुआ उद्यम-हीनआलसी पुरुष) किसी भी भोजनादि कार्य में सफलता प्राप्त नहीं करता। इस प्रकार उद्योग-गुण देखकर कौन पुरुष दैववाद (भाग्य सिद्धान्त ) के विषय में दुष्ट अभिप्राय-युक्त होगा ? अपितु कोई नहीं। भावार्थ-नीतिनिष्टों में भी कहा है कि 'भाग्य अनुकूल होने पर भी उद्योग-हीन मनुष्य का कल्याण नहीं होसकता'। वल्लभदेव ( नीतिकार) ने भी कहा है कि 'उद्योग करने से कार्य सिद्ध होते है न कि मनोरथों से। सोते हुए सिंह के मुख में हिरण स्वयं प्रविष्ट नहीं होते किन्तु पुरुषार्थ उद्यम द्वारा ही प्रविष्ट होते है। प्रकरण में पुरुषार्थवादी उक्त मंत्री यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! उद्योगी पुरुष कार्य सिद्धि करता है न कि भाग्य-भरोसे बैठा रहनेवाला बालसी। इसलिए पुरुषार्थ की ऐसी अनोखी शक्ति देखते हुए आपको राज्य की श्रीवृद्धि के लिए सतत् उद्योगशील होना चाहिए और भान्यवाद १. अतिशयालंकार । २. भाशेपालंकार । ३. तथा च सोमदेवपूरिः-धर्मातिकमादन परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं पापस्य भाजन सिंह इव सिन्धुरषषात् । ४. तथा च पितुरः-एकाकी कुरुते पापं फलं मुक्त महाजनः । भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥१॥ अर्थात्-नीतिकार विदुर ने कहा है कि 'यह जीव अकेला ही पाप करता है धीर कुटुर्मा लोग उसका धन भोगने हैं, वे तो छूट जाते हैं परन्तु कर्ता दोष-लिप्त हो जाता है-दुर्गति के दुःख भोगता है' ॥१॥ नौतिवाक्यामृत पू०३७ संकलित-सम्पादक ५. उपमालकार। ६. तया च सोमदेवमूरिः-'सत्यपि देवेऽनुकूले न निष्कर्मणो मनमस्ति' ५. तथा च पालभदेवः-उद्यमेन हि सिसयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुतस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाढीका-समेत) पृ० ३६६-३६९ से संकलित-संशक ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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