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________________ द्वितीय आवासः १४५ पस्त्वमापिरासि जन्ममि संक्षये , भोक स्वयं स्वतकर्मफकानुवरणम् । भाम्यो म जातु सुखदुःखविधी सहापः स्वाजीवनाथ मिलि विटपेटते ॥ ११ ॥ बायः परिग्रहविधिस्तव चूरमास्तां वेहोज्यमेति न समं सहसंभवोऽपि । कि साम्यति स्वममिर्श क्षणहटनटेदारात्मवषिणमन्क्षिमोपासः ।। १२० ॥ संशोच्य शोकषिवनो विर्स समेतमन्येशुरावरपर। स्वजनस्तवार्थे । बायोऽपि भस्म मबति प्रत्याधिताने संसारयन्त्रवटिकाटने स्वमेकः ॥ ११ ॥ त प्रकार की विचित्रता का अनुभव करके कौन विवेकी पुरुष संसाररूपी विषवृक्ष के पुष्प-सरीखे स्त्रियों के कटाक्षों द्वारा अपनी आत्मा को बिहलीभूत-व्याकुलित करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा' || ११८ ।। मथ एकत्वानुप्रेक्षा-हे जीव ! तू अकेला (असहाय) ही अपने द्वारा किये हुए पुण्य-पाप फर्मों के मुख-दुःख रूप फलों का सम्बन्ध भोगने के लिए स्वयं जन्म (गर्भवास) और मरण में प्रविष्ट होता है। दूसरा Tई पुरुष कभी भी तेरे सुख-दुःख रूप फल भोगने में अथवा तुझे सुखी या दुःखी बनाने में सहायक नहीं It वय क्या पुत्र-कलत्रादि-समूह तेरा सहायक हो सकता है? अपितु नहीं हो सकता। क्योंकि बहने पिटपेटक-शत्रु-समूह-सरीखा या नट-समूह-सा-अपनी प्राणरक्षा के निमित्त तेरे पास एकत्रित होरहा है। भावार्थ-शासकारों ने भी पाक बात प र हर ना है कि यह प्रात्मा स्वयं एण्य-पाप कर्मों का करती है और स्वयं ही उनके सुख-दुःख रूप फल भोगती है एवं स्वयं ही संसार में भ्रमण करती है चोर स्वयं छुटकारा पाकर मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्राप्त कर लेती है। गीतोपनिषद में भी कहा है कि ईश्वर जगत बिस्रष्टा (का) नहीं है और न वह उसके (लोगों के) पुण्य-पापरूप कर्मों की सृष्टि करता है। यह स्वभाव-- मिति (कर्म) हो जीव को पुण्य-पाप कमों में प्रवृत्त करता है। ईश्वर किसी के पाप या पुण्य का प्राइक ही यथार्थ बात तो यह है कि ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से सब जीव मोह के द्वारा बन्धन को प्राप्त होते "" || १९६॥ हे जीष ! जब जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ तेरा यह शरीर भी तेरे साथ जन्मान्तर ( अगले जन्म ) में नहीं जाता तब तेरा वाह्य परिग्रह (खी-पुत्रावि ) तो दूर रहे। अर्थात्-यह तो तुम से बिलकुल पृथक दृष्टिगोचर होरहा है, इसलिए वह जन्मान्तर में तेरे साथ किस प्रकार जा सकता है? नहीं जा सकता। अतः हे आत्मन् ! पूर्व में एक मुहूर्त में देखे हुए और पश्चात् दूसरे मुहूर्त में नष्ट नेपाले ऐसे इन स्त्री, पुत्र, धन और गृहरूप मोह-पाशवन्धनों से तू अपने को निरन्तर बाँधता हुमा क्यों लेशित होरहाहै ? ||१२०॥ जीव! तेरा कुटुम्ब-वर्ग शोफ से विवश हुआ केवल पसी (मरण-संबंधी) विन शोक करके सरेही दिन तेरा धन ग्रहण करने के लिए सन्मान के साथ प्रवृत्त होजावा है और तेरा यह शरीर भी भिवा-रमशान-की अमि-समूह से भस्म होजाता है, इसलिए संसार-रूपी रिहिट की दुःखरूप परियों के संगमनच्यापार में तू अकेला ही रहता है। अर्थात्-कुटुम्ब-वर्ग में से कोई भी तेरा सहायक नहीं 1. रूपकालंकार। २, तथा चोक्तं स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तस्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं अस्ताविमुष्टयदे ॥१॥ संस्कृत टीका पृ. २६२ से समुद्भुत-सम्पादक । तथा चोक्तं गोतोपनिषदिन कर्तृव न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोग स्वभावतु प्रति ॥१॥ मादले कस्पचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनायूतं ज्ञानं तेन मुन्ति जन्तवः ॥२॥ __५. रुपकालंकार । A विटपेटकं नाटकमिष इव शब्दोऽत्राप्यप्रयुक्तोऽपि दृष्टव्यः इति टिप्पणी का । ५. रूपकालङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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