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यशस्तिकपम्पूत्रव्ये ससीयतस्तबमा समस्तिमास्ता ततः परः परमवालसमाप्रयोः । सां स्थिते स्वषि पतो दुरितोपवापसेनेएमेच सुविधे गिरानमा स्थान || ११४ ॥ स्यारणामुप्रेक्षा ॥२॥
मगतिः पुरुषः शरीरमे स्पस्पपरमाभाते भवाम्भी। समयोचिरिच संशतिरेनमेरा नाना विडम्पति चित्रकला प्रपती ॥ ११ ॥ शालेयमितेषु पटुर्न बायः काये पटौ न पुनरावरवासवित्तम् ।।
मस्थात्मभिरामधमलों सदासयति कामकरः प्रबन्धः ॥ ११ ॥ गालो मान्तरविधी सविपर्ययोज्यमव जामाने अगामधरोमावः ।। जस्म पुः परपि यतोऽस्य एष स्वामी भवस्यनुपरः स सत्पदाईः ॥ ११ ॥ चिनालिस्यममुभूव भवाम्बुराशेरावादास्यविम्बितमनुवारः।
को नाम चन्मविपापपुष्पकम: स्वं मोहोन्मुगहनां कृतधीः कटाः ॥ ११८ ॥ इति संसारायुप्रेक्षा ॥३॥ शयों तथा पतुरा (हामी व पोदे-आदि) सैम्य-विधानों से चारों तरफ से सुरक्षित किया हुमा भी यमराज के दूतों द्वाप उसके अधीन करने के लिए उसके पास अकेला (असहाय) लेजाया जाता है ॥११३॥ हे सपरित्र आत्मम् ! पूर्ण सम्यग्दर्शन-बान-पारित्र प्राप्त किये हुए तुम्हारे सिपाय कोई पुरुष निश्चय से मी भी दुख भोगनेवाले तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। वास्तव में तुम ही स्वयं अपने रक्षक हो। क्योंकि जब तुम सम्यग्दर्शनशानचारित्र रूप बोधि में लक्लीन हो जाओगे तब तुम्हारा यह पाप-समूह (शानावरण-भावि कर्मराशि) और उससे होनेवाला सन्ताप (शारीरिक, मानसिक व पाण्यात्मिक दुःख) समूह स्वयं नष्ट होजायगा ॥११४॥ इति अशरणानुप्रेक्षा ॥२॥
भय संसारानुप्रेक्षा-संसार समुद्र में एकगति ( मनुष्यादि गति) भोगकर या बोरकर दूसरी गति प्राप्त करनेवाला यह आत्मा नामकर्म द्वारा दिया हुआ एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यही संमति ( संसार) कही जाती है, जो कि इस आत्मा को चिन्ता और आश्चर्यजनक नाना वेरों के घारण द्वारा उसप्रकार विम्बित (क्लेशित अथवा अपने स्वरूप को छिपाये हुए) परवी है जिसप्रकार नाट्य भूमि पर स्थित हुई नटी आश्चर्यजनक नाना वेष धारण करके अपने को छिपाये रखने का प्रया करती है। ।।११शा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश लक्षणवाला चार प्रकार का यह शाना परमादिकाँका पन्ध, जो कि नाना प्रकार की पर्यायों का उत्पादक है, परस्पर में एक दूसरे के द्वारा नाट कर दिया गया है स्वभाव जिनका ऐसे अपने स्वभावों द्वारा समस्त प्राणियों को निम्न प्रकार से अत्यन्त कुती पाता है। उदाहरणार्थ-यदि संसार में जब किसी को भाग्योदय ( पुण्योदय) से धन प्राप्त होजाता है तब उसे निरोगी शरीर प्राप्त नहीं होता। इसीप्रकार निरोगी शरीर मिल जाने पर भी इसका बीनाकानी होता११|| "वसरे जन्मों में प्राणियों का विपर्यास (खा से नीच व नीच से डर
शेना) नहीं होता" इसप्रकार का पाद-विवाद छोड़िए। क्योंकि जब इसी जन्म में मानवों की कम से नीच और नीच से उस स्थिति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होरही है। उदाहरणार्थ-लोक में निर्धन पुरुष धनाढ्य होजाता है और धनाड्य पुरुष क्षणभर में निर्धन (परिद ) होजाता है। इसीप्रकार राजा सेवक होजावा हैऔर सेवक राज्य-पद के योग्य (राजा) होजाता है तब इस आस्मा को अन्मान्तरों में भी उत्तम प . जपन्यपद की प्राप्ति निर्विवाद स्वयं सिद्ध हुई समझनी चाहिए ॥११॥ ऐसे संसार-समुद्र की, जिसने अपनी तत्काल प्राण-घातक व्याधि रूप बदबानस अनि द्वारा समस्त प्राणी समूह रूपी जलराशि पीड़ित की है, १. दीपक उपमाकार । २. रूपकालद्वार। ३. रूपक उपमालकार । ४, माति-भलाधार । ५. दीपकालाहार ।