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द्वितीय भावास:
पाणि वह शिगतावकावलीषु पासां मनाकुटिलता तटिनी तरड़ाः । अन्तमा डष्टिपये प्रयासाः कस्ताः करोतु सरलास्तरचायताक्षीः ॥ १०९ ॥ संहारकस्य पमस्प लोके कः परपसोहर विस्वा प्रयातः । परागपुरीपरमेश्वरोऽपि सत्रादिदोषमगुणे विधुरावधानः ॥ ११० ॥ इत्थं क्षणक्षयहुतारा मुखे सभ्य वस्तूनि परेक्ष्य परिवः सुकृती पहात्मा ।
सत्कर्म किचिनुयतेत यस्मिन्नसौ नवमगोचरतां न प्राति ॥ १११ ॥ इत्थमित्यानुप्रेक्षा ॥ १ ॥
तोऽर्थनिये हृदये स्वकार्ये सर्वः समाहितमतिः पुरतः समाते ।
जाते स्वपायसमयेोपतः पोहादि ततः शरणं न तेऽस्ति ॥ ११२ ॥ भुवः सुभटकोटिभि रास वगैर्मन्त्रास्त्रतन्त्रविधिभिः परिरक्ष्यमाणः ।
छादतिबालोऽपि कृतान्सलेशनीयते ययवसाय वराक एकः ॥ ११३ ॥
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संसार में उन चल व विशाल नेत्रोंवाली स्त्रियों को कौन सरल (निष्कपट) बना सकता है ? कोई नहीं बना सकता। जिनकी मानसिक कुटिलता रूपी नदी की तररों, उनके हृदयों में न समादी हुई हीं मानों--- बाहिर दृष्टिगोचर होरहा है। उदाहरणार्थ- जिनके बचन, त्रुटि (मोड़ें), नेत्र और गति (गमन) और केशश्रेणियों में कुटिलता दृष्टिगोचर होरही है' ।। १०६ ।। क्योंकि जब भक्षणार्थ अभ्यारोपित उद्यम - गुणवाले जिस यमराज (काल) को नष्ट करने में तीर्थकर भगवान् अथवा श्रीमहादेव का प्रयास ( प्रयत्न) भी निष्फल होगया तब जिसने समस्त संसार को तोड़ मरोड़कर खाने के उद्देश्य से अपने मुख का प्रास ( कवल – कौर) बनाया है और जो चौर सरीखा अचानक आक्रमण करनेवाला है, ऐसे यमराज का अन्द ( नाश ) संसार मैं कौन पुरुष कर सका ? अपि तु कोई नहीं कर सका ॥११०॥ पूर्वोक्त प्रकार से जीवन व योषनादि वस्तुओं को चारों तरफ से यमराज ( काल ) रूप प्रलयकालीन अभि के मुख में प्रविष्ट होती हुई देखकर इस पुण्यशाली व विवेकी पुरुष को प्रमाद-रहित होते हुए ऐसे किसी कर्त्तव्य ( ऋषियों द्वारा बताया हुआ तपश्चरणादि) के अनुशन में प्रयत्नशील होना चाहिए. जिसके फलस्वरूप उसे भविष्य में यह (यमराज) दृष्टिगोचर न होने पावे ||१११|| इति अनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥
अशरणापेक्षा — दे जीव ! जब तेरे पास धनराशि संचित रहती है एवं उसका कार्य उदारचित्तवृत्ति दानशीलता रहती है तब समस्त प्राणी ( कुटुम्ब आदि ) सावधान चित्त होते हुए तेरे सामने बैठे रहते हैं। अर्थात् - नौकर के समान तेरी सेवा-शुश्रूषा करते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि नीतिकारों ने भी उक्त बात का समर्धन किया है। परन्तु मृत्युकाल के उपस्थित होने पर कोई भी तेरा उसप्रकार शरण ( रक्षक ) नहीं है जिसप्रकार समुद्र में जहाज से गिरे हुए पक्षी का कोई शरण नहीं होता । अर्थात् समुद्र में जहाज से गिरा हुआ पक्षी समुद्र की अपार
राशि के ऊपर उड़ता हुआ अन्त में थककर उसी समुद्र में डूबकर मर जाता है, क्योंकि उसे अभय ( ठहरने के लिए वृक्षादि स्थान ) नहीं मिलता ॥ ११२ ॥ | यह बिचारा ( दीन ) प्राणी, जो कि वास्तव दृष्टि से समस्त सैन्य की अपेक्षा विशेष पराक्रमशाली भी है, मृत्युकाल के उपस्थित होने पर कुटुम्बी अनों, करोड़ों योद्धाओं और माता, पिता व गुरुजनादि हितैषी पुरुषों द्वारा, मन्त्रतन्त्र संबंधी विधानों, खङ्गादि
१. रूपक व उपमालङ्कार । २. रान्त व आक्षेपालङ्कार | ३. रूपकालङ्कार |
४. तथा व सोमदेव सूरि" पुरुषः धनश्य दासः न तु पुरुषस्य" नीतिवाक्यामृत से संकलित — सम्पादक
५. तथा बोके— 'अर्थिनमर्यो भवति संस्कृत टीका से संग्रहीत ६. उपमालङ्कार ।