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यशस्विनकपम्पूछान्ये नवयौवनमनोहरणीयताया: *कायेच्चमी यदि गुणाविरमावसन्ति । साम्सो म मातु रमणीरमणीयसार संसारमेनमधारयितुं यतन्ते ॥ १०६ ॥ सन्चैः पई मति जन्तुमधः पुनस्सं वाल्मेष रेणुनिचर्य चपला विभूतिः । मायस्थतीव जनता बनितासुम्नाय ताः सतवारकागता अपि विश्वाते ॥ १० ॥
र विपीतमिव सबनवत्कुलीन विद्यामहान्तमिव धार्मिकस्सजन्सी। चिन्तावरप्रसवभूमिरियं हि लोक लक्ष्मीः सिलक्षणसखी कलुषीकरोति ॥ १० ॥
यदि मानवों की शारीरिक कान्ति, जवानी और सौन्दर्य आदि गुण उनके शरीरों में घिरस्थायी रहते तब तो सञ्जन पुरुप कमनीय कामिनियों से मनोज्ञ मध्यभाग वाले संसार को कदापि त्यागने का प्रयल न करते ॥१६॥ जिसप्रकार प्रचण्ड वायु, धूलि-राशि को उड़ाकर उसे ऊँचे स्थान (आकाश) पर लेजाती है पुनः नीचे स्थान (जमीन) पर गिरा देवी है उसीप्रकार अत्यन्त चञ्चल धनादि लक्ष्मी भी प्रारही को ऊँचे स्थान (राज्यादि-पद) पर स्थापित करके पुनः उसे नीचे स्थान (परिद्रावस्था) में प्रविष्ट कर देती है। इस संसार में समस्त लोक (मानव-समूह) उसम स्त्री-संबंधी संभोग-सुख प्राप्त करने के लिए कृषि व व्यापापवि जीविकोपयोगी उद्योगों में प्रवृत्त होता हुआ कष्ट उठाता है, परन्तु जिसप्रकार पारद (पारा) इस्व तल पर सुरक्षित रक्खा हुआ भी नष्ट होजाता है इसीप्रकार त्रियाँ भी इस्ततल पर धारण की हुई (भलीप्रकार सुरक्षित की हुई) भी नष्ट होजाती हैं ॥१७ यह धनादि लक्ष्मी, जो कि चिन्ता से उत्पन्न होनेवाले ज्वर का उत्पसि स्थान है और उसप्रकार शरिणत स्नेह करती है जिसप्रकार दुष्ट क्षणिक स्नेह करता है, यह वीर पुरुष को उसप्रकार छोड़ देती है जिसरकार विनयशील को छोड़ देवी है। अर्थात्-विनयी भौर शूरवीर दोनों को छोड़ देती है और कुलीन पुरुष को भी इसप्रकार छोड़ देती है जिसप्रकार सजन पुरुष को छोड़ देती है। एवं धार्मिक पुरुष को भी उसप्रकार ठुकरा देती है जिसप्रकार विद्वान को ठुकरा देती है। इसीप्रकार यह समस्त संसार को पापी बनाती है। भावार्थ-स संसार में प्रायः सभी पुरुष अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त हुए की रक्षा और रक्षित किये हुए धन की वृद्धि के उद्देश्य से नाना भाँति के चिन्ता रूप पर से पीड़ित रहते हैं, अतः यह लक्ष्मी चिन्ता रूप ज्वर की उत्पत्ति भूमि है एवं लक्ष्मी बस्नेह दुध-प्रीति सरीखा चणिक होता है। नीतिकारों ने भी कहा है कि 'बौदलों की छाया, पास की अनि, दुष्ट का स्नेह, पृथ्वी पर पड़ा हुआ पानी, वैश्या का अनुराग, भौर खोटा मित्र ये पानी के पमूले के समान क्षणिक है। प्रकरण में लक्ष्मी का स्नेह दुष्ट-प्रीति-सा क्षणिक है इसीप्रकार यह लक्ष्मी सूरवीर, विनयशील, सजन, कुलीन, विद्वान और धार्मिक को छोड़ती हुई समस्त संसार को पापकालिमा से कसाहित करती है। क्योंकि 'लोभमूलानि पापानि' अर्थात् लोभ समस्त पापरूपी विषले हेरों ने उत्पन्न करने की जड़ है, अतः इसकी लालसा से प्रेरित हुमा प्राणी-समूह भनेक प्रकार के पप संचय मता ॥१८॥
*कायानभी' इति क, ख, ग, परमत अर्यभेदो नास्ति। खिल क्षणसखी' इति घ०, ०1 A प्रलयकाल समवस्तस्य साधरी इति टिप्पणी॥
१. समुच्चयोपमालंकार । २. उपमालंकार ।
३. तया योफ-मनमाया नृणादग्निः सले प्रीतिः स्पले जलम् । वेश्यानुरामा फमित्रं च पोते बुददोपमाः ॥1॥ संस्कृत टीका से संकलित-सम्पादक ४. उपमालद्वार ।