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एवं अप्रयुक्त-निष्टतम शब्द निघण्टु आदि के ललित निरूपण द्वारा ज्ञान का विशाल खजाना भरा हुआ है । उदाहरणार्थ - राजनीति — इसका तृतीय प्रवास (१५१८५-३७७, एवं धृ= ३=४-२=६) राजनीति के समस्त तत्वों से ओतप्रोत है। इसमें राजनीति की विशद, विस्तृत व सरस व्याख्या है। प्रस्तुत शास्त्रकार द्वारा अपना पहला राजनीति प्रन्थ 'नीतिवाक्यामृत' इसमें यशोधर महाराज के चरित्र चित्रण के व्याज से अन्तर्निहित किया हुआ-सा मालूम पड़ता है। इसमें कला व कहानी कला की कमनीयता के कारण राजनीति को नीरसता लुप्तप्राय हो गई है। गजविद्या व अश्वविद्या- इसके द्वितीय व तृतीय आश्वास (आ २ पृ= १६३-१७६ एवं आ० ३ ० ३२६-३३६) में विद्या अविद्या का निरूपण है । शस्त्रविद्या - इसके तृतीय आश्वास ( पृ० ३६६-३७४ व २६३-३६५ ) में उक्त विद्या का निरूपण है। आयुर्वेद इसके तृतीय आश्वास ( ० ३४० - ३५१ ) में स्वास्थ्योपयोगी आयुर्वेदिक सिद्धान्तों का वर्णन है । वादविवाद - इसके तृतीय आश्वास ( पृ २१८-२४१ ) में उक्त विषय का कथन है । नीतिशाख - इसके तृतीय अश्वास की उक्त राजनीति के सिवाय इसके प्रथम आश्वास (श्लोक नं० ३०-३२ ३५-३८ ४५ १२० १३० १३४, १३३, १४३, १४८-१५१, पृ० =६, ६१, ६२ के गद्य, ११, १३, २४, ३३, ३४, ५६-५७,
श्लोक नं १५२ ) में तथा द्वितीय आश्वास (श्लोक नं
९२. ६, पृ० १५६-१५६ तक का गद्य, । नीतिशास्त्र का प्रतीक है।
चतुर्थ आवास (पृः ७६ ) के सुभाषित पद्यों व गद्य का अभिप्राय यह है - 'यशोधर महाराज दीक्षा हेतु विचार करते हुए कहते हैं— 'मैंने शास्त्र पद लिए, पृथ्वं। अपने अधीन कर ली, याचक अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह हमारा यशोमतिकुमार' पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः मैं समस्त कार्य में अपने मनोरथ की पूर्ण सिद्धि करनेवाला हो चुका हूँ" । "पंचेन्द्रियों के स्पर्शआदि विषयों से उत्पन्न हुई सुख-तृष्णा मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है'। क्योंकि 'इन्द्रियविषयों ( कमनीय-कामिनी आदि) में, जिनकी श्रेता या शक्ति एक बार परीक्षत हो चुकी है, प्रवृत्त होने से चार बार खाये हुए को खतः हुआ यह प्राणी किस प्रकार लक्षित नहीं होता ? अपितु अवश्य लज्जित होना चाहिए | सुरत मैथुन) कीडा के अखीर में होनेवाले संस्पर्श ( सुखानुमान ) को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस श्रमिक सुख द्वारा यदि विद्वान पुरुष उगाए जाते हैं तो उनका तत्त्वज्ञान नही है | इसके पश्चात् के गद्य-खण्ड का अभिप्राय यह है ' मानव को बाल्य अवस्था में विद्याभ्यास गुणादि कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में कम सेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का धान करना चाहिए। अथवा अवसर के अनुसार काम आदि सेवन करना चाहिए ।' यह भी वैदिक वचन है परन्तु उक्त प्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है, क्योंकि आयुकर्म अस्थिर है। अभिप्राय यह है कि उक्त प्रकार की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है. क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है, अत मृत्यु द्वारा गृहीत
केश- सरीखा होते हुए धर्म पुरुषार्थी का अनुष्ठान विद्याभ्यास- सा बाल्यावस्था से ही करना चाहिए।
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चतुर्थ आश्वास ( पृ० १५३-१४५ ) के सुभाषित पद्यों में कूटनीति है, उनमें से दो लोक सुनिए— 'तुम लोग मनुष्यों का सम्मान करते हुए कर्णामृतप्राय मधुर वचन बोलो तथा जो कर्तव्य चित्त में वर्तमान है, उसे करो । उदाहरणार्थ- मयूर मधुर शब्द करता हुआ विषैले साँप को खा लेता है । जिसप्रकार यह लोक ईंधन को जलाने हेतु मस्तक पर धारण करता है उसीप्रकार नीतिशास्त्र में प्रवीण पुरुष को भी शत्रु के लिए शान्त करके विनाश में लाना चाहिए उसका क्षय करना चाहिए * ।
१, समुखियालंकार | २. ३ बार
४. ष्टान्तालङ्कार । ५. दृष्टान्तालङ्कार |