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रतीय बाधा मनासकारिणि मक्पुरुषे नैव वर्गना मितथा। वितधस्त पर निपमो शेकवयवलपरीक्षायाः ॥ १९ ॥
इति पठता गलोरमीविखोकनानन्दितताः प्रभित्र हरियालीरवर्शम् । कदाचिसम्पयोगात्मेष गुलियोर्भा पर प्रहारसौधर्व या करोति फुयरेन्याणां कल्पना सा प्रशस्यते इति विहितकल्पनाविधिः ।
भाववि देव मा गजपति छोपीरामले का सा कुम्वरमा मम पुरी था मुसीमा भवत् । तस्पर्याप्तमनेम कोशविधिमा भारफलम कुर्वता वारंवारमितीव चिन्तनपरो नेने पियो करी ॥ ३२ ॥ इति बाधीयानेन गृहीतप्रसादपरम्परा करिणां कोतारोपणमकरवम् ।
येषां गजोसमाङ्गानि बलानि न महीभुजाम् । उत्तमामिहीनानि सानि तेषी रमाणे ॥ ३२१ ॥ आलानस्तम्भ (बन्धन का खम्मा) को प्राप्त हुआ होता है उस समय हे वेव ! ऐसा मालूम पड़ता हैमानों-पृथिवीदेवता पुनः जीवित हुई-सी श्वासोच्छ्वास प्रहण कर रही है और शेषनाग कष्ट से उन्मुक्त हुश्री-जैसा पृथिषी शिथिलित करता हुआ अपना खेद दूर करता है एवं वायु पन्धन मुक्त हुई-सी समस्त विशाओं में यथेष्ट संचार करती है' ॥३१राजन् ! पूर्वोक्तलक्षपखाले आन्धर्यजनक इस हाथी का पूर्वोतपर्णन असत्य नहीं है एवं निश्चय से विद्वानों द्वारा कहा हुआ वेग व बल के विचार का निर्णय भी क्या असत्य है? अपि तु नहीं है। अभिप्राय यह है कि हाथी के वेग व शक्तिमत्ता के विचार का निश्चय भलकार-पद्धति से कहा हुमा साहित्यिक दृष्टि से यथार्थ समझना चाहिए ||३१||
. अथानन्तर ६ मारदा माराज! किसा अवसर पर दिग्विजय-हेतु किये हुए सैन्य-संगठन के पूर्व ही मैंने इसप्रकार का निश्चय करके कि 'जो कल्पना ( हाथियों के दाँतों का जड़ना-मादि) उनके मख की दस्त-रक्षादिशोभा-जनक है और किलों के तोड़ने-आदि में किये हुए दन्त-प्रहारों में दसा उत्पन्न करती है, यही प्रशस्त ( सर्वभेष्ट) समझी जाती है। उक्त विधान (इस्तिवन्त-जदनादि विधि ) सम्पन किया।
तत्पश्चात ऐसे अने, जिससे निमप्रकार पाठ पढ़ते हुए गजोपजीवी ( महावत आदि ) पुरुषों ने हर्षदान-श्रेणी ( हर्षजनक विशेषधनादि पुरस्कार ) प्राप्त की है, हाथियों का कोशारोपण ( लोहा-आवि धातुओं से दन्त-बेधन-आदि की क्रिया) किया।
हे राजन् ! हे सुभटशिरोरत्न ! आपका गजेन्द्र (श्रेष्ठ हाथी) अपने दोनों नेत्र निमीलित (बन्द) करता हुआ ऐसा प्रतीत होता है-मानों-वह इसप्रकार पारंवार विचार करने में ही तत्पर है- वीरशिरोमणि ! जब आप मुझ गजपान (इस्ती-स्वामी) पर आरूढ़ हुए तब वह शत्रुओं की गजमण्डली (हास्त-समूह) कितनी है? आपसु कुछ नहीं ह-तुच्छ हे, जो मरे आग सम्मुख होगी इसलिए मार-खेदजनक इस पम्तजटनादिविधान से क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं ॥ ३२ ॥ जिन राजाओं की हाथी, घोरे, रथ र पैदलरूप चतुरङ्ग सेनाएँ हाथीरूप श्रेष्ठ अन से हीन होती हैं, उनकी ये सेनाएँ युद्धभूमि पर मस्तक हीन समझनी चाहिए। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकारने' कहा है कि 'उक्त चतुरज सेना में हाथी प्रधान माने जाते हैं, क्योंकि ये 'अष्टायुध' होते हैं। अर्थात्-वे अपने पारों पैरों, दोनों दाँतों व पूँछ तथा सूंगरूप शबों से युद्धभूमि पर शत्रुओं को नष्ट करते हुए विजयश्री प्राप्त करते हैं अब कि दूसरे पैदल भादि सैनिक दूसरे खा-आदि हथियारों के धारण करने से आयुधवान्-शखधारी-कहे जाते हैं। पालकि*
* 'कदाचित्सेनोयोगान् क० स०। १. उत्प्रेक्षालंकार । १. अतिशयालंकार । ३. आक्षेपालार। ४. तथा च सोमदेवत्रि:-लेषु हस्तिनः प्रधानमा स्वैरपमरठायुषा इसिनो भवन्ति ॥ १॥
५. तपा च पालकिन-अष्टायुधो भवेहम्ती दन्ताभ्यां चरणैरपि । तथा च पुच्छशुण्डाभ्या संख्ये तेन स शस्यते ॥१॥