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যহাবিষমুক্ষা पासमख बहन काल मुह वरुण समीरण धन चन्द्रमः प्रथिसम्भिविभवास्तविमानवात प्रथमतः । कपोन्मुकाम बाबी लिगति वारणो नो वेदिभविडीमरपमा भवसां भविता पताकिनी ५३१४ ॥
राष्टिपथ गते विगलिता ईसावलीकाधिका स्पशास्पङ्कजिनीवलांशु कमगावस्याः सरस्याः पुनः । नाभि प्राप्तवसि स्वयीव मुभम प्रोवाङ्गनाविनर्म सोस्क्रपा न करोति के गजपती सा फोलवीचीभुषा ॥३१५॥ विनिकीर्णकमलमाल्या पर्यस्वनराकुम्सला सरसी । राजति गमपसिभुक्का स्वदधिरभुक्ता पुरन्धीष ॥ ३१६ ॥ यदामुपलोभ्य पूर्व बद्धस्तेनैव नाथ पर्याप्तम् । इति सर्वनाशजी गुल्मानपि दूरतस्त्यजसि ॥ ३१ ॥ प्रत्युज्जीवितव देव धरणीदेख्या विनिःश्वस्पते भोगीन्द्रः मलयः श्रमं विनयते धादिवापेत्तवान् ।
वायुधनतो विमुक्त इव व स्वैरं दिशः सर्पति प्राप्तसम्भमपास्तसंगरभरः स्तम्मेरमस्ते यहा ॥ ३१८ ॥ सदान (खण्डन-युक्त नष्ट करने योग्य ) हुआ' ।।३१।। हे राजन् ! आपका हाथी आफाश की ओर अपना शुण्डादण्ड () कता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों-वह इन्द्र-श्रादि देवताओं के लिए निम्नप्रकार का उपदेश देने की कामना कर रहा है-'हे इन्द्र ! हे अग्निदेव ! हे यम ! हे कार्तिकेय ! हे वरुण! हे वायुदेव ! हे कुवेर ! हे चन्द्र ! तुम सभी देवता लोग, जिनका धन केवल एक एक ऐरावत-आदि हाथी की लक्ष्मी से विख्यात है, इसलिए अपने अपने हाथियों की रक्षा सावधानतापूर्वक करो। अन्यथा ( यदि अपने एक-एक हाथी की रक्षा सावधानतापूर्वक नहीं करोगे) तो आपकी सेना हाथियों से शून्य प्रयत्नवाली होजायगी ॥३१४।।
हे सुभग ( श्रवण या दर्शन से सभी के लिए सुखोत्पादक ) राजन् ! जम आप सरीखा यह गजेन्द्र सरसी ( महासरोवररूपी स्त्री) द्वारा दूर से दृष्टिगोचर हुआ तम उसकी हँसश्रेणीरूपी करधोनी नीचे गिर गई और जब इसके शुण्डादण्ड द्वारा यह स्पर्श की गई तब इस सरसीरूपी स्त्री का कमलिनीपत्ररूपी घन गिर गया। पश्चात् जब श्रापका गजेन्द्र इस सरसी की नाभि (मध्य) प्रदेश पर प्राप्त हुआ सम चञ्चल लहरोंरूपी बाहुलताओंवाली यह कम्पित होती हुई कौन से नवयुवती स्त्री के शोभा-विलास प्रकट नहीं करती? अपि तु समस्त नव युवती स्त्री के शोभा-विलास प्रकट करती है। अर्थात्-जिसप्रकार जब आप नवयुवती स्त्री द्वारा दूर से दृष्टिगोचर होते हो तब उसकी करधोनी खिसक जाती है और जब आप नषयुवती का सुखद स्पर्श करते हो तब उसकी साड़ी दूर होजाती है। पञ्चास्-जब आप उसके नाभिदेश का आश्रय करते हो तब चञ्चल मुजलदाओंवाली यह कम्पित होती हुई कौनसा विलास (भ्रकुटि-क्षेप-आदि) प्रक्ट नहीं करती १ अपितु समस्त विलास (भ्रुकुटि-क्षेप-आदि) प्रकट करती है।॥३१॥ हे राजन् ! आपके गजेन्द्र द्वारा मोगी हुई सरसी ( महासरोवररूपी स्त्री), जिसके कमलपुष्प इधर-उधर-फेंके गए हैं और जिसके तरङ्गरूप केश यहाँ-वहाँ विखरे हुए हैं, उसप्रकार शोभायमान होरही है जिसप्रकार आपके द्वारा तत्काल भोगी हुई पुरन्ध्री ( कुटुम्बिनी-पति व पुत्रवाली स्त्री ) शोभायमान होती है। अर्थात् जिसप्रकार आपके द्वारा तत्काल भोगी हुई पति व पुत्रवाली स्त्री यहाँ-वहाँ के हुए पुष्पों से युक्त और विखरे हुए केशोंवाली होती हुई सुशोभित होती है ॥३१६|| हे नाथ! निम्नप्रकार ऐसे अभिप्राय से 'सर्वत्र श्राशङ्का ( संदेह) करनेवाला यह हाथी वृक्षों का भी दूर से परित्याग करता है। 'हे नाथ ! जिसकारण मैं हथिनी का लोभ विखाकर पूर्व में (द्वार-प्रवेश के अवसर पर ) बाँधा गया उसी बन्धन से पर्याप्त है" ॥३१॥ हे राजम् ! जिस समय आपका हाथी संग्राम-भार छोड़ता हुआ
१. समुच्चय र दलेषालंकार। २. उत्प्रेक्षालंकार । ३. रूपक, उपमा घ आक्षेप-अलंकारों का संमिश्रणरूप संकरालंकार । ४. उपमालङ्कार । ५. हेतु-अलंकार ।