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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये सोयाबीमारिक्षत्रिपचरिकीर्तनधाप्रथम प्रथम करणम्, निजप्रतापगुणगायनीकृतामसमिधुन मिधुनोदयः समया, सोकोचमोत्सवयम् पम्न एकाइयो समस्य, श्रीसरस्वतीप्रसाधितपूर्वपाणिग्रह प्रहगणः सर्वोऽपि सतमारमवादादेशाअक्तूम्योपावस्य, कहाणपरम्परासम्पल पम्न नमानुन मानुषो हानांशकरच, अशेषविश्वभरेश्वशतिसापितमोत्सवदिवस सितारातारेवरावस्थारच प्रकार्म प्रशस्साः, विशेषेण तु गुरुवर महादेव्या, देवस्य पावित्पमतम् । तदुसित देवाः' इति मजन की वार्ता में, जिसमें उनकी शूरता, धीरता, उदारता और शक्ति-आदि प्रशस्त गुण पाये जाते है, प्रयम (प्रधान ) ऐसे हे राजन् ! आज 'वष' नामका प्रथम करण है।
भावार्थ-ज्योतिषशास्त्र के प्राचार्यों ने अब, बालय, कौलष, तैत्तिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, पतुष्पाद, नाग, व किंस्तुघ्न करण, इसप्रकार ११ करण माने है। उनमें से शुरू से लेकर सात करण-नाव से लेकर पिष्टिकरणपर्यन्त-चल बदलनेषाले) है और अन्त के चार (शकुनि, चतुष्पाद, नाग 4 किंस्तुन) स्थिर-अचल ( प्रतिनियत तिथि में होनेवाले और न बदलने वाले) होते है। हवाहरणार्य-कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन अन्त्य दल में 'शकुनि' करण होता है, अमावस्या के पहले दल में चतुष्पाद और पिछले दल में नागकरण होता है, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम पक्ष में किस्सुन' करण होता है। अतः ये चार करण स्थिर-अचल-कहे जाते हैं। प्रकरण में शुक्लपक्ष के करण कोष्टक से, जो कि छोडाचक्र पृ. १२ में उल्लिखित है, विदित होता है कि शुपाकी पनामी तिथि में दिन में वष (प्रथम) और रात्रि में बालय ( दूसरा) करण है।
निष्कर्ष-हे राजम् ! आज प्रथमकरण मुहूर्त-शुद्धि में विशेष महत्वपूर्ण (शुभ-सृषक ) है देवी व देवता-युगलों को अपने प्रतापगुण का गान करने में तत्पर करनेवाले हे देव! प्रस्तुत समय मिथुन हामोदय से सुशोभित है। समस्त लोकों के नेत्रों को चन्द्र-सरीखे आनन्दित करनेवाले हे राजाधिराज! इस समय मिथुनलग्न के ग्यारह में चन्द्र का पक्ष्य है। लक्ष्मी और सरस्वती के साथ सबसे प्रथम विवाह किये हुए हे स्वामिन् ! इससमय मिथुनलम के सातवें, माठवें और बाद में स्थान में कोई भी अशुभ प्रह नहीं है। कल्याण-शुभ) श्रेणीरूप सम्पत्ति से परिपूर्ण होने के कारण दिव्य (स्वर्गीय) मानवता को प्राप्त हुए हे नरेन्द्र ! आज वृषसम का मिथुनांश लिपद होने के फलस्वरूप मानुष होने से शुभसूचक है। समस्त पृथिवीमण्डल के राजाओं से विशेषतापूर्ण जन्म व उत्सवदिवस-शाली हे देव.! प्रवास, नष्ट, हास्य, रति, क्रीडित, सप्तमुक्त, फर, कम्पित व सुस्थित इनके मध्य में दिवसावस्था विशेष प्रशस्त है एवं ताराषस्था भी प्रशस्त है। भावार्थ-छह वाराएं शुभ होती है। अर्थात्-जन्मतारा, दूसरी, छठी, चौथी, आठमी और नेपमी वारा ये छह ताराएँ शुभ होती है और तीसरी, पाँचवी और साती सारा अशुभ होती है, जिस नक्षत्र में जन्म होता है, वहाँ से लेकर तारा की गणना की जाती है। अतः हे राजन् ! सारा भी प्रशस्त है .एवं चन्द्र की अवस्था (प्रथम) भी प्रशस्त है । हे देव ! विशेषरूप से अमृतमती महादेवी का
1-तथा चोकम्-'प्रवासनामयमृतंजयारल्या हास्या रतिकोडितसप्तमका कराया कम्पितमस्थिताय ।'
तेषु मध्ये दिवस्रावस्था अतिशयेन प्रशस्ता वर्तते । २ सदुका अन्मतारा द्वितीया च पछी चैन चतुर्षिका 1 अध्मौ नवमी वैव षद् ताराच शुभाषहाः ॥१॥"
एतापता वृतथा, पवर्मा सप्तमी च तारा भयभा इत्यर्थः । पस्मिन् नक्षत्रे अन्म भवसि सरभादगण्यते । संस्कृत ठीका पृष्ठ ११९ से संगृहीत–सम्पादक