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________________ द्वितीय भावासः विनिवेदितसविधतरोल्सवसमयः स्मुपसृत्य विलासिनीजनजन्यमानमालालापं समभिषेकमण्डपममराठयमिव सरस्नरखतकार्सस्वरकलशम्, ईश्वरस्यशुरमिब विविधौषधिसमाथम्, अपारमिव समुद्गापामासुभगम्, आहे निवासमिव प्रसाधितसिसातपस्वसामरसिंहासनम्, अम्बुजासनशयमिव पुसकुरालंकृतमध्यम, एवमपरेष्यपि तेषु तेवभिलषितेपु वस्तषु करुपमाममिव परिपूरितकामम् , मन्वागतकुलदेवतोपकण्ठपरिकल्पितसकलकुलधनायुधम्, आमलोकापनीयमानमामवसपाधम्, __ पल्पाकोन्मुसमुकशुक्तिएटोर्मुक्ताफलैः स्फारिख यत्समाप्रविस्टकम्बलखैरप्लासितं विद्रुमैः । पवारापणनामिपमरजोराजीभिरापिञ्जर तक्ष्मीरमणीत्रिभोट जलधे पायोस्तु ते प्रीतये ॥२०१८ गुरुवल है और आपका आवित्य ( सूर्य) बल है, अतः हे राजन् ! आप विषादीक्षा व राज्याभिषेक महोत्सव-सम्बन्धी ऐसे अभिषेक मण्डप में, प्राप्त होकर शोभायमान होइए । ___तत्पश्चात्-उतप्रकार से ज्योतिर्वित् विन्मण्डली द्वारा प्रस्तुठ दोनों उत्सवों की लपशुद्धि निवेदन करने के अनन्तर-मैं (यशोधर ) उस ऐसे विवाहोत्सव य राज्याभिषेक महोत्सव-मण्डप में प्रास हुआ, जिसमें कमनीय कामिनियों द्वारा माङ्गलिक गान-ध्वनि की जारही थी । वह ( अभिषेक-मंडप) चाँदी के और रत्नजडित सुवर्णमयी पूर्ण कलशों से उसप्रकार अलंकृत होरहा था जिसप्रकार सुमेरु पर्वत रत्नमयी पसुवर्णमयी कमों से अलकत होता है। उसमें नाना माँति की औषधियाँ उसप्रकार वर्तमान थी जिसप्रकार हिमालय पर्वत में नाना प्रकार की पौषधियाँ वर्तमान रहती है। वह अभिषेक मण्डप समुद्र में जानेवाली गमा-मादि नदियों की जलराशि से ऐसा विशेष रमणीक प्रतीत होता था जिसप्रकार समद्र अपनी ओर आनेवाली ( प्रविष्ट होनेवाली ) -आदि नदियों के अलप्रवाह से मनोज्ञ प्रतीत होता है। यह तच्छत्रों, पमरों व सिंहासन से उसप्रकार घिभूषित था जिसप्रकार तीर्थकर सर्पज्ञ भगवान का समवसरण श्वतखत्रों, चमरों व सिंहासन से विभूषित होता है। उसका मध्यभाग कुशांकुरों से उसप्रकार अलंकृत होरहा था जिसप्रकार ब्रह्मा के हस्त फा मध्यभाग कुशांकुरों से अलंकृत होता है। इसीप्रकार बाह उन-उन जगप्रसिद्ध, अभिलषित व माङ्गलिक वस्तुओं से उसप्रकार लोगों के मनोरथ पूर्ण करता था जिसप्रकार स्वर्गलोक अभिलषित व माङ्गलिक प्रस्तुओं से देवताओं के मनोरथ पूर्ण करता है। जहाँपर बैश-परम्परा की कुलदेवता (अम्बिका ) के सभीप पूर्व पुरुषों द्वारा उपार्जित की हुई धनराशि य शत्रश्रेणी स्थापित की गई थी और जिसमें मनुष्यों की संकीर्णता (भी) हितैषी कुटुम्बी-वर्गों द्वारा दूर की जारही थी। तत्पश्चात् -जललिबिलास नामक सालिक (स्तुतिपाठक) से निम्नप्रकार विवाह-दीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक सम्बन्धी माङ्गलिक कविताओं को श्रवण करता हुआ मैं गृहस्थाश्रम ( विवाह-संस्कार ) संबंधी दीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक के मङ्गल मान से अभिषिक्त हुआ। लक्ष्मीलप रमणी के साथ फ्रीड़ा करनेवाले हे राजन् ! यह जगप्रसिद्ध ऐसा समुद्र जल, आपको विशेष आनन्दित ( उल्लासित ) करे, जो ऐसे मोक्तिकों ( मोती-श्रेणियों ) से प्रचुरीकृत (महान) है, जिन्होंने पाकोन्मुखता-वश (पके हुए होजाने के कारण) अपना (आधारभूत) शुचिपटल (सीपों का समूह) छोड़ दिया है। जो ऐसे समुद्र-संबंधी प्रवाल (मूंगा) मणियों से शोभायमान होरहा है, जिनमें तत्काल कन्वलदल ( अंकुर-समूह ) उत्पन्न हुए है एवं जो श्रीकृष्ण की नाभि से सस्पम हुए कमल की पराग-समूह से चारों तरफ या कुछ पीतवर्णशाली होरहा है। ।। २०६।।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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