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________________ वनदेवतानिवासमिवाप्यकुरङ्गम्, द्वितीय आश्वासः १९९ पाक्तिः स्मितसोधकान्तिरालोकनेत्राम्बुसोपहारा एषामनाविभागीयागावनेः संवदतोव लक्ष्मीम् ॥२४०॥ विलोलाकार श्रीनितम्ब सिंहासनम मम द्वितीय कुचकुम्भशोभा सौभाग्यसाम्राज्यभिश्रादधाति ॥ २४१ ॥ जो नागेशनिवास ( नागराज के भवन ) समान होता हुआ भी अ-द्विजिल्हपरिजनसर्पों के कुटुम्ब से रहित था । यह भी बिरुद्ध है; क्योंकि जो नागराज ( शेषनाग ) का भवन होगा, वह सर्पों के कुटुम्ब से शून्य किलप्रकार होसकता है ? अतः समाधान यह है कि लो नागेशों ( हाथियों) का गृह था और निश्चय से जो अ-द्विजिह-परिजनों (बुर्जनों - घूँसखोर व लुटेरे - आदि दुष्टों --- के कुटुम्ब समूहों से रहित था एवं जो वनदेवता निवास ( धनदेवता का निवास स्थान ) होता हुआ भी अर ( मृग-रहित ) था। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो वनदेवता का निवास स्थान होगा, वह मृग-हीन किस प्रकार हो सकता है ? अतः समाधान यह है कि जो वन देवता निवास है । अर्थात् जी अमृत और जलदेवता या स्वर्ग देवता की लक्ष्मी का निवास स्थान है और निश्चय से जो अ-कु-रनकुत्सित रङ्ग से शून्य है' । हे मासि महाराज ! उस अवसर पर ऐसी यह उज्जयिनी नगरी यज्ञभूमि सरीखी लक्ष्मी (शोभा) प्रकट कर रही है, जिसमें कमनीय कामिनियों की भ्रुकुटिरूप पताकाएँ ( ध्वजाएँ ) वर्तमान हैं । अर्थात् - जिसप्रकार यज्ञभूमि पताकाओं ( ध्वजाओं ) से विभूषित होती है उसीप्रकार यह नगरी भी स्त्रियों की भ्रुकुटिरूपी ध्वजाओं से अलंकृत थी। जिसमें मन्दहास्वरूपी यज्ञमण्डप की शोभा पाई जाती है । अर्थात् -- जिसप्रकार थज्ञमण्डप - भूमि सौध - कान्ति ( यज्ञमण्डप - शोभा - चूर्ण) से शुभ्र होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी मन्द हास्यरूपी यज्ञमरहप -शोभा से विभूषित थी एवं जिसमें स्त्रियों के चल नेत्ररूप कमलों की पूजा पाई जाती है। अर्थात् जिसप्रकार यज्ञभूमि कमलों से सुशोभित होती है उसीप्रकार इस नगरी में भी कमनीय कामिनियों के चहल नेत्ररूप कमलों की पूजाएँ ( मैंदें ) वर्तमान थीं और जिसका शरीर कमनीय कामिनियों के भ्रुकुटिक्षेप ( उल्लासपूर्वक भौहों का बढ़ाना ) रूपी दर्भ ( डाभ ) से संयुक्त है। अर्थात् जिसप्रकार यज्ञभूमि दर्भे ( डाभ ) से विभूषित होती हैं उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी कियों के भ्रुकुटि दक्षेपरूपी दर्भ (लाभ) से विभूषित थी' || २४२ || ऐसी गह उज्जयिनी नगरी मेरे ( यशोधर महाराज के दूसरे सौभाग्य साम्राज्य की धारण करती हुई सरीखी मालूम पड़ती है। जो कमनीय कामिनियों के चल केशपाशरूपी चॅमरों की लक्ष्मी -शोभा से विभूषित है। अर्थात् जिसप्रकार साम्राज्यलक्ष्मी चल केशोंवाले चँमरों की शोभा से अलंकृत होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी कमनीय कामिनियों के चल केशपाशरूपी चँमरों से अलंकृत थी। जो कमनीय कामिनियों के नितम्ब ( कमर के पीछे के भाग) रूप सिंहासनों से सुशोभित थी । अर्थात् -- जिसप्रकार साम्राज्य लक्ष्मी सिंहासन से मण्डित होती है उसी प्रकार वह नगरी भी स्त्रियों के नितम्वरूप सिंहासनों से अलंकृत थी और जिसमें शियों के कुछ ( स्तन ) कलशों की शोभा पाई जाती थी । अर्थात् जिसप्रकार साम्राज्य लक्ष्मी पूर्ण कलशों से सुशोभित होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी रमणीक रमणियों के कुंच (स्तन) फलशों से अलंकृत थी * ॥ २४१ || * 'सिंहासनचारुमूर्तिः' क० । १. उपमालङ्कार व विरोधाभास - अलङ्कार | २. उपमालङ्कार | १. उपमालङ्कार |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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