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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये बायकम्, भषाधिपमिकाप्यस्थाणुपरिगतम्, शंभुशरणमिवाप्यव्यायापलीबम, प्रमसौधमिवाप्यनेकरथम् , मनमन्दिरमियाप्पसुनुप्रतापम्, रिंगेहमिवाप्यहिरण्यकशिपुनाश, नागेशानिवासमिवाप्यविजितपरिवनम्, समाधान यह है कि जो पातोदवसित ('-अतोद-अव-सित) था । अर्थात् विशिष्टों की पीड़ा रहितों-शिष्टफाल्न मुखवाले पुरुष-से चारों ओर से संयुक्तधा श्रीर निश्चय से जो अचपलनायक-शाली था। अर्थासजहाँपर स्थिरचित्तवाले ( दूसरों का धन व दूसरों की स्त्री के ग्रहण से रहित-निश्चल हृदयवाले ) नायक ( सामन्त ) क्तेमान थे। अथवा समाधान पक्ष में टिप्पणीकार के अभिप्राय से जो वात-उद-ब(पर) सित ( वायु और जल से चारों ओर से जटित-शीत वायु व शीतोदक सहित ) था और निश्चय से भचपलनावक ( परदार-पराकमुख-स्वदारसंतोषी-सामन्त पुरुषों से अधिष्ठित ) था। जो धनदधिष्ण्य (कुवेरमन्दिर ) के समान होता हुआ निश्चय से अस्थाणुपरिगत ( रुद्र-श्रीमहादेव-रहित ) था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो कुबेर-मन्दिर होगा, वह रुद्र-रहित किसप्रकार होसकता है? क्योंकि कुवेर और सह परस्पर में मित्र होने के कारण एक स्थान पर रहते हैं। इसलिए इसका परिहार यह है कि जो घनदधिष्ण्य–दाताओं का गृह-होता हुआ अस्थागुपरिगत ( शाखा हीन वृक्षों से रहित ) था।
जो शंभुशरण-रुद्रमन्दिर-समान होता हुआ निश्चय से अव्याल अवलीढ था । अर्थात्-सपा से युक्त नहीं था । यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है ; क्योंकि जो रुद्र-मन्दिर होगा, यह सों से शून्य किसप्रकार होसकता है ? अवः परिहार यह है कि जो शंभु-शरण-सुख उत्पन्न करनेवालों का गृह होकर के भी अ च्याल अवलीद था। अर्थान-दुष्ट पुरुषों से युक्त नहीं था। जो अध्न-सौध ( सूर्य-मन्दिर ) सरीखा होकर के भी अनेकरथ ( अनेक रथों से विभूषित ) था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो सूर्यमन्दिर होगा, मह भनेक रथमाला कसे होसकता है ? क्योंकि सूर्य के केवल एक ही रथ होता है। अतः परिहार यह है कि जो वृधन सौध-विशेष ऊँचे होने के कारण सूर्य के समीपवर्ती व सुधा (चूना) से उज्वल गृहों से युक्त था और निश्चय से अनेक रयों से विभूषित था। अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से अर्थात्-जहाँपर प्रश्नानां (सूर्यकान्त मणियों का सुधा यत्र (श्वेतद्रव्यविकार) पाया जाता है, ऐसा था और निश्चय से जो अनेक रथों से व्याप्त था। जो चन्द्रमन्दिर-सा होकर के भी अमृदु-प्रताप ( तीव्रप्रताप-युक्त ) था। यहाँपर भी विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो चन्द्रमन्दिर होगा, वह तीव्रप्रताप-युक्त किसप्रकार होसकता है? अतः परिहार यह है कि जो चन्नमन्दिर । प्रचुर सुवर्ण युक्त ) है और निश्रय से जहाँपर अमृदु-प्रताप-शालियों (वीणों-हिंसकों ) का प्रकृष्ट सन्ताप ( पीड़ा ) पाया जाता है. ऐसा था। जो हरि-नोह (नारायण-विष्णु के गृह-समान ) होता हुआ भी अ-हिरण्यकशिपुनाश-हिरण्यकशिपु' नामक दैत्य के नाश से रहित था। यह भी विरुद्ध है। क्योंकि जो नारायण-गृह होगा वह हिरण्यकशिपु नामक दैत्य के नाश से रहित किसप्रकार होसकता है। अतः परिहार यह है कि जो नारायण-गह सरीखा था और निश्चय से अ-हिरण्य-कशिप-नाशथा। अर्था-सुवर्ण व कशिपु ( भोजन व वन दोनों) के नाश से रहित था। अर्थात्-जहाँपर सुवर्ण, भोजन व वस्त्रों की प्रचुरता थी।
ह-व' हाब्देन विशिष् कथं सभ्य ने-इति चेत् , सदु-विश्वप्रकाश-'बो दन्त्योय'ऽपि वरुणे वाणे पारे परे ।
शोषणे पचने सन्धे वामै वृन्दे च वारिधी । चनने बनने वादे बंदगयां च क्रीनित: ।'
संशोधित संकटी पृ. ३४६ से संगृहीत - सम्पादक २- उच-अप कोमलं मूठु' ।