________________
द्वितीय आश्वासः
१२६ लोलालकामि बदलाम्जनलोचनानि फेलिश्रमश्वसितदुर्लम्हिताधराणि ।
आलिङ्गनोगतवपुःपुलकाः सुतानां चुम्बन्ति ये वदनकानि त एष धन्याः ॥ ९ ॥ अम्बा तात इति प्रत्रीति पितर चाम्येति संभाषसे धात्रीपूर्वनिवेदितानि च पदान्य|तितो अल्पति । शिक्षालापविधौ प्रकृयति तो नास्ते स्थिरोऽयं क्वचिन् न्याहूतो न भूयति धावति पुन: प्रत्युस्थितः सस्वरम् ।। ९ ।।
तदनु निपतिते समस्सलोकोत्सवशर्मणि चौलकर्मणि सवय सचिसाप्तसतानुशीलनः समाचरितगुरुकुलोएनयनः, प्रजापतिरिव सर्ववांगमेधु, पारिरक्षक हा प्रसंख्यानोपदेशेषु, पूज्यपाद इव शरुपैतिशत्रु, स्याहादेश्वर प धाख्यामेषु, भकलदेव इव प्रमाणशास्त्रेषु, पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु, कविरिव राजराद्धान्तेषु, रोमपाव छ गजविद्यास, स्वत इव इयनयेषु, अरुण इव स्थचर्यास, परशुराम इथ शस्त्राधिगमेषु, शुकनास इव रक्षपरीक्षासु, मरत हव संगीतकमतेषु,
जो पुरुष अदों के आलिङ्गन से रोमाञ्चित शरीरशाली होते हुए उनके ऐसे सुन्दर मुख चूमते हैं, जिनपर चश्नल केश समूह वर्तमान हैं, जिनके नेत्रों में प्रचुर अञ्जन आँजा गया है और जिनके ओष्ठ क्रीड़ा करने के परिश्रम से उत्पन्न हुई निःश्वास वायुओं से ललित प्रतीत नहीं होते, वे ही संसार में भागशाली है ! जोशमा भलान अशमा को पिता और पिता को माता कहता है और उपमाता (धाय) द्वारा कद्दे हुए शब्दों को आधी-तुतलाती-बोली से बोलता है और माता द्वारा दीजानेवाली शिक्षाविधि (क्यों रे! ऐसा क्यों कर रहा है ? माता के केश स्वींचता है. ऐसा मत कर-इत्यादि शिक्षा-पूर्ण उपदेश विधि) से कुपित होजाता है और रक्षित हुआ ( पकड़कर एक जगह पर बैठाया हुआ) भी किसी एक स्थान पर निश्चल होकर नहीं बैठता और माता-पिता द्वारा बुलाया हुआ यह बच्चा उनके बचन नहीं सुनता, क्योंकि खेलने की धुन में मस्त रहता है। पश्चात्-उठकर शीघ्रता से ऐसा भागता है, जिसे देखने जी चाहता है 100
बाल्यकाल के पश्चात् समस्त जनों द्वारा किये हुए महोत्सव से आनन्द-दायक मेरा मुण्डन संस्कार हुमा। तत्पश्चात् कुमारकाल में समान आयुवाले मंत्री-पुत्रों के साथ विद्याभ्यास करने में तत्पर, पुरोहितआदि गुरुजनों द्वारा भलीप्रकार सम्पन्न किये हुए यज्ञोपवीत मौरजी-वन्धन-आदि संस्कारों से सुसंस्कृत, शास्त्राभ्यास में स्थिर बुद्धि का धारक, ब्रह्मचर्यग्रत से विभूषित और गुरुजनों की सेवा में तत्पर (विनयशील) हुए मैंने, बहुश्रुत विद्वान गुरुजनों शरा सिखाई आनेवाली एवं राज-कुल को अलत करनेपाली व अनेक मत संबंधी प्रशस्त विद्याएँ ससप्रकार ग्रहण की जिसप्रकार समुद्र नाना प्रकार के नीचे-ऊँचे प्रदेशों से प्रवाहित होनेवाली नदियाँ महण करता है ||१|| जिसके फलस्वरूप मैंने समस्त विद्याओं के वेत्ता विद्वानों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली मिस्ता प्राप्त करती। उदाहरणार्थ-जिसप्रकार ब्रह्मा समस्त (बामणादि) के शारों में निपुण होता है इसीप्रकार में भी समस्त वणे (अक्षरों) के पढ़ने-लिखने आदि में निपुण होगया। जिसप्रकार साधु प्रसंख्यानोपदेश (ध्यान-शास) में प्रवीणता प्राप्त करता है उसीप्रकार मैंने भी प्रसंख्यानोपदेश (गरिएक्शाक) में प्रवीयता प्राप्त की। इसीप्रकार में पूज्यपाद स्वामीसरीखा व्याकरण शाला का, तीर्थर सर्वज्ञ अथवा गणधरदेव-सा अहिंसारूप धर्म की वक्तृत्व कला का, अकलाइवेव-सरीक्षा दर्शनशाब का, पाणिनी आचार्य-सरीखा सूक्तिशाली (नैतिक मधुर वचनामृत षाले) शास्त्रों का, वृहस्पति या शुक्राचार्य-जैसा राजनीतिशालों का, अंगराज-सा गजविद्या का, रषिसुत सरीखा अश्वविधा ( शालिहोत्र) का, सूर्यसारथि की तरह रथ-संचालन की कला का, परशुराम की तरह शक्षविया का, अगस्त्य के तुल्य रत्न-परीक्षा की कक्षा का, भरत चक्रवर्ती या भरत ऋषि-समान
१. जाति-अलंकार। २. जाति-अलङ्कार ।