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________________ १२० पराखिसकपम्पूषव्ये सरविरिण लिचित्रमा काशिराब सरीरोपचारे, कायापारस्वास चकब सन्तुलित पाहायपी। मामास्वपि मासु, सासविद्याविदामपंपरणनैपुषपमहमाभित: परिवपक्षमोदामाबसरत विद्यारम्बा गुरूनेस्पादित्वमा नाण्यावीवियनानिमयोप्पा । कमाइ मुसम्बहेतुमूताः पोचसिनीरिय पोजिनेन्मानाः ॥ १॥ मसंपादिवसंस्कार सबातमपि रया । इतरत्न महीलाला सत्पदा म बापते ॥ ९॥ गीत (गीत, नृल व वादिन) कला स, सटकि (देषसूत्रधार) के समान चित्रकला का, धन्वन्तरिक समान वैवशासब, शुक्राचार्य के समान व्यूहरचना का और अमाल के आचार्य समान कामशाब अपारदर्शी चिनान होगया एवं विसप्रकार चन्द्र अपनी योग्य कक्षाओं का कलावित् (विज्ञान) होता है उसीमधर में भी समस्त प्रकार की पौंसठ कसानों का कतापित् (विद्वान् । होगया। तदनन्तर मेरे गोदान (अमचर्याश्रम-स्याग - विवाहसंस्कार ) अमवसर प्राप्त हुआ। __ जिसप्रकार रमों की सानि से उत्पन्न हुआ भी स (मणिक्यादि) संस्कार-(शाणोन्सान भाषि) हीन हुआ शोमन स्थान-योग्य नहीं होचा उसीप्रकार प्रशस्त (ब) फुल में उत्पन्न हुया राजपुत्र रूपी सभी राजनीवि-मादि विद्याओं के अभ्यास रूप संस्कार से शून्य हुआ राज्य पद के योग्य नहीं होता। मापाच-सोमदेवसूरि, गुरु ष हारीत आदि नीतिकारों ने भी सच बात का समर्थन करते हुए दुष्ट राजा से होनेवाली प्रजा की झनि का निरूपण किया है। अभिप्राय यह है कि राजपुत्रों मया सर्वसाधारण मानषों को प्रशस्तपद (लौकिक व पारलौकिक सुखदायक अब स्थान) प्राप्त करने के लिए मलित कलाभों का अभ्यास करना विशेष प्रावश्यक है। क्योंकि नीतिनिष्ठों ने भी कहा है कि संसार में मूर्ख मनुष्य को छोड़कर कोई दूसरा पशु नहीं है। क्योंकि जिसप्रकार गाय-भैंस-आदि पर प्रस-यादि मरण करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-अधर्म (कर्तव्य-अकर्तव्य) ही जानता उसीप्रकार मूर्स पुरुष भी खानपानादि क्रिया करके मल मूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-धर्व म्य सर्वव्य को नहीं जानता। नीविकार यसिष्ठ ने भी यही कहा है। नीतिकार महात्मा भर हार १. श्लेष, अपमा, दीपक व अमुच्चयालबार । २. तवा चाह सोमदेव प्रि:-संस्काररत्नमिव सुजातमपि राजपुत्रं न नायकपदायामनन्ति साथः । 1-तथा च सोमदेवमूरि-न निीताबारः प्रधानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः' अर्थात् - राजा से प्रया विनास ही होता है, उसे छोदर और दूसरा कोई उपाय नहीं होसकता। ३. तथा च गुरुः-वराजनि राष्ट्राणि रक्षन्तीह परस्परं । मूलों रामा भवेषेषा तानि गरछन्ताह संक्षयं ॥ वर्षात्-विन देशों में राजा नहीं होते, वे परस्सर एक दूसरे की रक्षा करते रहते है परन्तु जिनमें मूई रागा होगा नष्ट होजाते हैं॥ ॥ ४. तपा व हारीतः--उत्सातो भूमिकम्पायः शान्तिीति सौम्यता । नृपवतः उत्सातो नम प्रनाम्यति ॥ १॥ अर्थात्-भू-कम्प से होनेवाला उपद्रव शान्ति माँ ( पूजन, जप महानादि धार्मिक कार्यों से पानी होजाता है परन्तु दुष्ट राजा से उत्सान हुआ उपद्रव विसीप्रकार मी शान्त नहीं होसकता । ५. सपा च सोमदेव सूरि:- प्रशानादन्यः पशुरस्सि' नौतिवारसामृत से संकलिस-सम्पादक) ६. तथा च पसिष्ठः- अ मर्मतमा लोकाः पशवः पर्जिताः धर्माधो न जानन्ति यतः शाकापरामुखाशा .. तथा च भर्तृहरिः-साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशः पृच्छविषाणहीनः । तृणं न खावमपि जीवन धेयं परमं पशूनाम् ॥७॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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