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________________ तृतीय श्राश्वास: २१३ ताधिज्याकावं देव इदं गौर्जरं बलम् । एवमेतान्यपराण्यपि हिमालय मलय मगधमध्यदेशमाहिष्मती पतिप्रभृतीनामवनीपतीनां यानि देवस्य विजया योगमायांगतानि पश्येति बलाधिकृतीनां विज्ञप्तीरशृणत्रम् । शुरोऽर्थशास्त्रनिपुणः कृतशस्त्रकर्मा संभामकेलिचतुरश्चतुरङ्गयुक्तः । भर्तुर्निदेशवरागोऽभिमतः स्वतन्त्र सेनापतिर्नरपतेर्विजयागमाय ॥ २४६ ॥ कदाचित्पुराणपुरुष स्तवनधादिबन्दिवा गुद्याघेषु सर्वसेवाप्रस्तायेषु डण्डिमण्डलाः । कण्टोत्कण्ठकुठारास्ते देवैतादिपत घटाः ॥२४७॥ दूताः कालचोसिंहलशक श्री मारूप वालकैरन्यैश्वाङ्गिङ्गपतिभिः प्रस्थापिताः प्राङ्गणे । सिष्ठस्वास्म कुलागताखिलमहीसारं गृहीत्वा करे Xदेवस्यापि जगत्पतेरवसरः किं विद्यते वा न वा १३२४८ ॥ स्थापन करना ), प्रहार करना आदि और दुःसाध्य ( दुःख से भी सिद्ध करने के अयोग्य ) दरवर्ती लक्ष्य ( भेदने योग्य पदार्थ ) की ओर उबलकर प्राप्त होना इत्यादि में प्राप्त की हुई चतुराई द्वारा कृपाचार्य, कृपधर्माचार्य, कर्ण, अर्जुन, द्रोणाचार्य, द्रुपद - द्रौपदी का पिता भर्गनाम का योद्धा अथवा शुरू और भार्गव को तिरस्कृत - लज्जित किया है एक दिलने हुई मलु ारण किए है। इसी प्रकार हे राजन् ! ये दूसरी हिमालय नरेश, मलयाचलस्यामी, मगधदेश का सम्राट् और अयोध्या के राजा एवं माहिष्मती नामक देश के राजा आदि राजाओं की सेनाएँ जो कि आपकी दिग्विजय यात्रा का उथम श्रवण कर आई हुई हैं, देखिए । राजा का ऐसा सेनापति [ शत्रुओं पर ] विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ होता है, जिसने नीतिशाखा में कुशलता प्राप्त करते हुए समस्त प्रकार के आयुधों ( हथियारों ) की संचालन विधि का अभ्यास किया है एवं जो युद्धकोड़ा का विद्वान होते हुए हाथी, घोड़ा, रथ व पैरलरूप चारों प्रकार की सेनाओं से सम्पन्न है तथा स्वामी की आज्ञापालन में तत्पर होता हुआ अपनी सेना का प्रेमपात्र है ॥२४६|| श्रथानन्तर [ हे मारिदत्त महाराज ! ] किसी समय मैंने राजद्वार में सर्व साधारण का प्रवेश न रोकनेवाले ऐसे अवसरों पर, जिनमें यशोर्घराजा - आदि पूर्वज पुरुषों की स्तुति करनेवाले स्तुति पाठकों के वचनों का उत्सव पाया जाता था, महान राजदूतों के निम्न प्रकार वचन श्रवण किए - राजदूतों के वचन दे राजन् ! आपके शत्रुओं की ये ( प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई ) ऐसी श्रेणियाँ वर्तमान हैं, जिनके मण्डल ( पृथिवी भाग) आपकी सेना के प्रचण्ड हाथियों की सूड़ों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये हैं और जिनके कण्ठों पर परशु बँबे हुए हैं ||२४|| हे देव! ऐसे राजदूत, जो कि केरल ( दक्षिण देश का राजा ), चोल ( मञ्जिष्ठा देश का सम्राट् ), सिंहल ( लङ्काद्वीप का स्वामी ), शक (गुराशन देश का सम्राद), श्रीमाल ( श्रीमाल वश्शिकों की उत्पत्तिवाले देश का अधिपति), पश्चालक ( द्रुपद राजा के देश का स्वामी ), इन राजाओं द्वारा एवं दूसरे गौड, गुर्जर आदि देशवर्ती राजाओं द्वारा तथा दूसरे अङ्ग ( चम्पापुर का सम्राट् ), कलिङ्ग ( कोटिशिला देश के दन्तपुर का स्वामी ) तथा बङ्ग । पूर्व समुद्र के तटवर्ती देशों - बंगाल आदि का राजा ) राजाओं द्वारा भेजे गये हैं, अपनी वंशपरम्परा से की आनेवाली समस्त पृथिवियों का धन ( भेंट ) हस्त पर ग्रहण करके आपके महल के आँगन पर स्थित हो रहे हैं, पृथिवीपति x 'देवस्याच जगत्पतेरवसरः क० । १. दीपक माय अलंकार । २. जाति-धरंकार | 'धातु लवृन्दभूभागेषु ! मण्डलाः सं० टी० पृ० ४६९ से संत-सम्पादक ३. अतिशयाॐकार । ४० च
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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