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यस्तिलकचम्पूकाव्ये अवलगति कलिनाधीश्वरस्त्वां करीन्द्र स्तरगनिवाह एए प्रेपिस: सन्धवैस्ते। अपमपि च समारते पाण्यदेशाधिनाथस्तरहगुलिकहारप्रामु तव्यग्रहस्तः ॥२४॥ काश्मीर: कोरनाया क्षितिप मृगमदेव नेपालपाल: कौशेयः कौशलेन्मः शिशिरमिरिपतिन्धिपगैर दीण।
श्रीचन्द्रश्चन्द्रकान्तधिविधलधनैर्मागधः प्रान्सस्स्वां द्रष्टा समास्ते यदिह समुचितं देव तन्मा प्रशाधि ॥२५॥ इति संधिविहिणां गीतीराकर्णामास । वाचति लिखति करते समयति सर्वा लिपीश्च भाषाश्च । आत्मपरस्थितिकुशलः सप्रतिभः संधिविही कार्यः ॥ २५६ ।।
आपयों को मिलो : मनराम ||२४८॥ हे राजन् ! कलिङ्ग ( दन्तपुरनगर) का अधिपति श्रेष्ठ हाथियों की भेंटों द्वारा आपकी सेवा कर रहा है और सिन्धुनदी के तटवर्ती देशों के राजाओं द्वारा आपके समीप भेजा हुआ यह सुन्दर जाति के घोड़ों का समूह [ भेंटरूप से स्थित्त हुआ] धर्तमान है एवं पाण्ड्य देश का अधिपति भी, जिसके हस्त तरल (स्थूल-श्रेष्ठ ) मोतियों के हारों का उपहार धारण करने में विरोप आसक्त हैं, आपके सिंह ( श्रेप) द्वार पर स्थित है ॥२४६।। हे राजेन्द्र ! काश्मीर देश का अधिपति केसर का उपहार लिए हुए, यह नेपाल देश का रक्षक कस्तूरी की भेंट ग्रहण किये हुए, कौशलेन्द्र । विनीतापुर का स्वामी ) रेशमी वस्त्रों के उपहार धारण करता हुआ एवं हिमालय का स्वामी उत्कट प्रा-धपर्ण ( सुगन्धि द्रव्यविशेष ) की भेंट धारण किये हार एवं यह कैलाशगिरि का अधिपति चन्द्रकान्त मणियों की भेट लिए हुए तथा मगध देश का राजा नानाप्रकार के वंश परम्परा से चले आनेवाले धन ( भेंट ) ग्रहण किये हुए आपके दर्शनार्थ सिंह द्वार पर स्थित होरहा है, इसलिए हे राजन् ! इस अवसर पर जो उचित कर्तव्य है, उसके पालन करने की आज्ञा दीजिए.२ ॥२५०१
हे राजन् ! आपको ऐसा राजदूत नियुक्त करना चाहिए, जो राजा द्वारा भेजे हुए शासन (लेख) को जैसे का तैसा अथवा विस्तृत र स्पष्ट रूप से बाँचता है, लिखता है, वर्णन करता है, अपने हृदय में स्थित हुप अभिप्राय को दूसरों के हृदय में स्थापित करता हुआ समस्त अठारह प्रकार की लिपियों और भाषाओं को मोड़-आदि देशवती राजाओं के लिए ज्ञापित करता है एवं जो अपने स्वामी की तथा शत्रु की मर्यादा (सनिक व कोशशक्ति के ज्ञान में कुशल है। अर्थात् मेरा स्वामी इतना शक्तिशाली है. और शत्रु इतना शक्तिशाली है, इसके ज्ञान में प्रवीण है एवं जिसकी बुद्धि धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र व कामशास्त्र आदि में चमत्कार उत्पन्न करती है तथा शत्र के साथ सन्धि व युद्ध करने का जिसे पूर्ण अधिकार प्राप्त है। अर्थाजिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि य युद्ध को उसका स्वामी यसप्रकार प्रमाण मानता है, जिसप्रकार पाडव-दूत श्रीकृष्ण द्वारा निश्चित किये हुए कौरवों के साथ किये जानेवाले युद्ध को पांडवों ने प्रमाण माना था अथवा श्रीराम के दूत हनुमान द्वारा निश्चित किये हुए रायण के साथ किये जाने वाले युद्ध को श्रीराम ने प्रमाण माना था। भावार्थ-प्रकरण में यशोधर महाराज से कहा गया है कि हे राजन् ! आपको उक्त गुणों से विभूषित राजदूत नियुक्त करना चाहिए। प्रस्तुत यशोधर महाराज के 'हिरण्यगर्भ' नामके राजदूत में उक्त सभी गुण वर्तमान थे। राजदूत की विस्तृत व्याख्या हम श्लोक नं० ११२ में कर चुके है ॥ २५१॥
१. समुच्चयालंकार | A-उतच–'हारमध्ये स्थितं रानं नाय तरल विशुः ।। १, समुच्चयालंकार । ३. दीपकालंकार । ४. समुच्चयालंकार।