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यशस्तिचम्पूकान्ये
पशुचैर्विचिचरान्तरचिकान्डकोटिभिः विविधाकृतिपताकानुरपरामिव दिवं सूर्य बारा मिविवशुमोचानश्रियं शिलाज और गन्दगर्भत्वेगुवीणानुगताङ्गनागीतपक्षविवचिमा स्व स्वाननइयह बाघोर स्मरेण मद्दमन्दिमोडूमरगण्डमण्डल डालनाल नासान्मुतिना विपरपुर प्रासादशी प्रवेशमांसवेन खाचास जात मन परिम्मा प्रशाभिताम्भोभिना मोनां तुन्दुभीनां स्वनेनानन्दितनिखिकभुवनस्त दामिरावतीरमणीयको राजधानीमनु कि ताई प्राकृते ।
तसः सैन्यसीमन्तिनी परणप्रणिपातप्रणयिमानसा प्रणीतता संवाहून विनोदकर्माणः कृतमितम्यस्थळी वेठाः
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उस समय फहराई जानेवाली नाना-भाँति की ध्वजाओं के ऐसे वस्त्रों से में ऐसा प्रतीत रहा था - मानों- मैंने आकाश और पृथिवी मण्डल के मध्य अनोखे कल्पवृक्ष-वन की लक्ष्मी ( शोभा ) हो विस्तारित की है और जिनके वस्त्र प्रान्तभागरूप पल्लव ( प्रवाल ), मेरी सेवा के लिए आये हुए अनेक महासामन्तों ( अधीन में रहनेवाले राजाओं) के मुकुटों में जड़े हुए रत्नों की ऊपर फैलनेवाली किरणों से मुकुट-शाली किये गये थे एवं जिनके ( सुवर्णमयी ) दंडों के अमभागों पर श्वेत, पीत, हरित, लाल और श्याम आदि नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए थे । उक्त अवसर पर मैंने समुद्र का मध्य प्रदेश संचालित करनेवाली दुन्दुभियों ( भेरियों ) की ऐसी ध्वनि से समस्त पृथिवी मण्डलवर्ती जनसमूह आनन्दित किया था, जिसका ( ध्वनि का ) मूल ( प्रथम आरम्भ ), स्तुतिपाठक-समूहों के निम्नप्रकार आशीर्वाद युक्त वचनों से, “हे राजन् ! आपकी जय हो, राजाधिराज ! आप दीर्घायु और दीप्तिमान् द्दों एवं समृद्धि-शाली होते हुए पुत्र-पौत्रादि कुटुम्बियों से और घन व धान्यादि से वृद्धिंगत हो”, स्थूल होरहा था। जिसकी मूर्च्छना वेगु ( बॉसरी ) और वीणाओं की ध्वनियों से मिश्रित हुए स्त्रियों के गीतों से वृद्धिंगत होरही श्री । जो क्षुब्ध ( हिलनेवाली वा खींची जानेवालों ) लगामों से व्याप्त सुखवाले घोड़ों की हिनहिनाने की ध्वनियाँ ( शब्द ) भक्षण ( लुम) करता है। जिनका ( दुन्दुभि बाओ भेरियों का ) शब्द प्रवाहित हुए मद ( दानजल ) की अधिकता से व्याप्त उत्कट गण्डस्थलवाले हाथियों के गले की नाल ( नाड़ी) अथवा गलरूपी नाल ( कमल की डांडी ) से उत्पन्न हुई चिंधारने की ध्वनियों द्वारा द्विगुणित होगया था और जो इन्द्रादिकों के are (स्वर्ग) वर्ती मन्दिरों की वेदियों के मध्य में प्रवेश करने से स्थूल श्रा एवं समुद्र के तटवर्ती
समूह की गुफाओं के मध्य देश से उत्पन्न हुई अधिकता से व्यास था ।
उक्त भेरी आदि के शब्दों से समस्त पृथिवी मण्डल को आनन्दित करता हुआ में उक अभिषेक मंडप से इन्द्रनगरी अमरावती की मनोज्ञता को लखित करनेवाली रमणीयता-युक्त राजधानी (उज्जयिनी ) की ओर वापिस लौटा।
वनन्तर मेरी सेना के प्रस्थान करने से उत्पन्न हुई ऐसी धूलियाँ प्रसूत हुई ( फैली ), जिन्होंने ऐसा पाद-संमर्वनरूप कीड़ाकर्म किया था, जो सेनारूप कमनीय कामिनियों के पाद-स्पर्श करने पर स्नेह-युक्त चिवों से किया जाकर वृद्धिंगत होरहा था । इसलिये जो ( धूलियाँ ) संभोग-कीड़ा के अवसर को सूचित करनेवाले स्त्रियों के पति सरीखीं थीं । अर्थात् — जिसप्रकार रविविलास के अवसर पर स्त्रियों के पति शुरु में उनका पादस्पर्श करते हैं उसीप्रकार धूलियाँ भी सेना का पाद-स्पर्श करती हैं-उड़ती हुई पैरों पर लगती है। अथवा पाठान्तर में जो ( सैन्य-संचारोत्पन्न धूलियाँ ) सेनारूप कमनीय कामिनियों के पाद-पतन में स्नेहयुक्त और जङ्गामर्दन का कोढ़ा कर्म करनेवाली हैं। जिन्होंने नितम्ब स्थतियों ( कमर के पश्चात्
'सैन्यसीमन्तिनीनां चरणिपातप्रणयिनः प्रणीतप्रभूतासंवाहन विनोदकर्माणः ० ॥