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________________ द्वितीय आवास: जनितनाभित्र कुदरत्रहरणाः प्रतिपद्रवतित्राहिनी जलक्रीडाः परिमलितस्तनस्तम्बाम्बराः परिपीसाधरामृतठावण्याः परिविष्टपन कमलकाभ्यः समावरित लोमन्तप्रान्तचुम्बनाः सूरितसुरतसमागमाः प्रियतमा इव पुनश्मरसुन्दरीवदन चन्द्रकाः ककुबङ्गमालकप्रसाधनपिष्टातकचूर्णरि चतुरधि ळावनदेवता पटवासाः पुनरुक्तदिक्क र टिपांशुप्रमाथाः परिकल्पितधूर्जटिजटोबुलनारम्भाः कुशखण्डिनकदम्बमकरन्द्राः पलिताङ्कुरिवाम्बरवरकामिनी कुरवलापाः प्रधूसरित रविरधनुरगकेसराः स्विमित गनापगापयःप्रत्राद्दाः सकलदिकपालमौलिमणिमयूखप्रसर निरसननीहाराः पाण्डुरिताराति मुलाखतीमंडलाः प्रदर्शितागामिविरहानल* भूमकापा व निखितशेशेन्त ((समत्र निम यस सुष्टमिव कर्तुमर वृषा भन् केकीप्रस परागस्पर्धिनो बलसंचरण रेणवः । भाग- प्रदेश ) पर क्रीड़ाओं द्वारा उसप्रकार वेद उत्पन्न किया था जिसप्रकार संभोग कीड़ा के अवसर पर त्रियों के पति उनकी नितम्ब स्थलियों से कीड़ा करके उनको खेद उत्पन्न करते हैं। जिन्होंने नाभिविवर (छिद्र ) रूप गुफाओं पर उसप्रकार विहार उत्पन्न किया था जिसप्रकार रविविलास के इच्छुक भर्ता लोग स्त्रियों की नाभि विवररूप गुफाओं पर विहार करते हैं। जिन्होंने त्रिबलीरूपी नदियों में उस प्रकार जलकीड़ा की है जिसप्रकार रतिविलास के अवसर पर स्त्रियों के पति त्रिवलीरूपी नदियों में जलक्रीड़ा करते हैं । जिन्होंने कुच ( स्तन ) तदों के आडम्बर ( विस्तार ) अर्थात् — विस्तृत स्तनतट उसप्रकार मर्दन ( धूल धूसरित ) किये है जिसप्रकार संभोगकोड़ा का अवसर सूचित करनेवाले भर्ता लोग कमनीय कामिनियों के विस्तृत - पीन ( कठिन ) स्तन वटों का मर्दन करते हैं। जिन्होंने ओष्ठरूप अमृत कान्ति का उसप्रकार श्रास्वादन किया है जिसप्रकार रतिविलासी भर्ता लोग का मैनियों के श्रोष्ठामृत की कान्ति का पान करते हैं। जिन्होंने नेत्ररूप कमलों की कान्ति उसप्रकार मलिन की है जिसप्रकार संभोग के इच्छुक विलासी पति स्त्रियों के नेत्ररूप कमलों की कान्ति नेत्र-चुम्बन द्वारा मलिन करते हैं। जिन्होंने केशपार्शो का चुम्बन (स्पर्श) उसका अच्छी तरह से किया था जिसप्रकार संभोग-कीड़ा के अवसर पर भर्ती लोग रमणियों के केशपाशों का चुम्बन ( स्पर्श या मुख-संयोग ) करते हैं । फिर कैसी हैं वे सैन्य-संचार से उत्पन्न हुई धूलियाँ ? जो बार-बार देवियों के मुखचन्द्र को [ रोली- सरीखी ] विभूषित करती हैं। जो दिशारूपी कमनीय कामिनी के केशपाशों को सुगन्धित करने के लिए सुगन्धि चूर्ण सरीखी हैं एवं जिसप्रकार पटवास ( वस्त्रों को सुगन्धि करनेवाला चूर्ण ) वस्त्रों को सुगन्धित करता है उसीप्रकार प्रस्तुत धूलियाँ भी चारों समुद्रों के तटवर्ती घनों में निवास करनेवाली देवियों को सुगन्धित करती थीं । जिन्होंने हिमाजों का धूलि - उत्क्षेपण ( फेंकना) द्विगुणित किया है। जिन्होंने श्रीमहादेव की जटाओं को धूलिधूसरित करने का प्रारम्भ चारों ओर से किया है। जो कुन्दपुष्परस - सरीखी कुलाचलों के शिखर मण्डित ( विभूषित ) करती है। जिन्होंने देवियों और विद्याधरियों के केश समूह शुत्र किये हैं । घोड़ों के केसर ( स्कन्ध- केश ) प्रधूसरित ( कुछ शुभ्र ) किये है। जिन्होंने अरूप किये हैं । जो समस्त इन्द्रादिकों के मुकुट-रत्नों की किरण प्रवृत्ति को निराकरण करने में वर्फ सरीखी हैं । अर्थात्-जिसप्रकार वर्फ वस्तुओं को उज्वल ( शुभ्र ) करता है उसीप्रकार धूलियाँ भी इन्द्रादि के मुकुट -रत्नों का किरण-विस्तार शुभ्र करती हैं। जिनके द्वारा शत्रु-समूहों एवं कमनीय कामिनियों के गालों के स्थल जिन्होंने सूर्य रथ के आकाशनदी के जलपुर 1. 'वेलाचलवनदेवता क० AB १६३ * धूमोहमकला इव ६० । A 'उत्थान' । B'रेखा' टिप्पण्यां । २५
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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