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यशस्विनकपम्पूफाव्ये पुनः रिमालकानिहानिरस्सासरप्रसराः परस्परमिलापताकापटप्रसामविहितवितामारा: सतरंभापाइप लोइमरपासवः परतिस्पन्दमाममदजवनिसकमास्तुरगवेगखरखुरक्षोनिविभनय कामयसपासमहमला पदमातसीमन्तिनीषणधर्मबहसुसजसप्रसापितसंमार्जना सेनालनास्सनक्षोमविश्यम्भुक्तमानमणिरचित करायश: पुरोचनदेवयापकी कुसुमोपहाराः समचनियस समाधिमादपि मनोहराः प्रयाणामाः ।
ततोऽविसविलम्बसमालोनोसालपिलासिनीसंकुलसौधनमावलितोत्सवसपालमपसितपुरमंदिरं पुरमवलोक्य हो महाकविकावयास सरस्वतीविलासमानसोतसहस प्रादुरासन् किस सदा मम्मतिलतापास्वाइजनप्रवचभूषणोचितविषयः 1 सक्तिमञ्जयः। तथाहिशुभ्र किये गये हैं। जो ऐसी प्रतीत होती थी—मानों-जिन्होंने भविष्य में होनेवाली विस्ह रूप अग्नि की घूमोत्पत्ति के समूह ही प्रकट किये हैं और जो ऐसी मालूम पड़ती थीं-मानों समस्त प्राकाश और कृषियी के मध्यभाग में पृथिवी मण्डलमयी सृष्टि की रचना करने के लिए प्रवृत्त हुई हैं।
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! राजधानी ( उज्ञयिनी) की ओर प्रस्थान करने के अवसर पर मेरे ऐसे गमन-मार्ग उस सभा-मण्डप की कृत्रिम ( बनी हुई ) बद्धभूमि से भी अधिक मनोहर हुए, जिनमें हाथियों के ऊपर स्थित हुए नगर-पिच्छों के हवनामूहों में गर्मी पति जा कर दी गई थी। परस्पर मिलनेवाली ध्वजाओं के वस्त्र-समूहों से जहाँपर विस्तृत श्रृदेवे रचे गये थे। जिनमें वेगपूर्वक मंचार करते हुये स्थ-समूहों से उत्पन्न हुई उत्कट धूलियाँ वर्तमान थीं। जहाँपर हाथियों के गण्डस्थलों से प्रवाहित होनेवाले मलजलों द्वारा कर्दम (कीचड़ ) उत्पन्न की गई थी। जिनकी भूमि घोड़ों के वेगशाली व सोइट सरीखे कठिन खुरों ( टापों ) के स्थापन या संघर्षण से निषिड़ थी। ऊँटो के पाद-पतन से जिनके तल ( उपरितन-भाग ) दर्पण-सदृश सचिकरण थे।
जिन प्रयाण-भागों पर ऐसे करल कुडकुम का छिड़काव किया गया था, जो कि मार्ग चलने के परिश्रम से खेद-खिन्न हुई नवयुवतियों के घने स्वेद-जल विन्दुओं से नीचे गिर रहा है। सेना की स्त्रियों के कुच-कलशों (स्तनों) के संघटन से टूटकर नीचे गिरते हुये मोतियों व सुवर्णमयी आभूषणों के रत्न-समूहों से जहॉपर रंगावली ( चतुष्क पूरण ) की गई थी एवं नगर सम्बन्धी बगीचों के धन-देवताओं द्वारा जहाँपर पुष्प-समूह बखेरे गये थे अथवा पुष्प-राशि भेंट दी गई थी।
अथानन्तर महाकवियों की काव्य-रचनारूपी कर्णपूर से विभूषित व सरस्वती की क्रीड़ारूपी मानसरोवर के दीरवी इस अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से सरस्वती की क्रीडारूपी फमल-वन को विकसित करने हेतु इस (सूर्य) सरीखे ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! जब मैंने ऐसी उज्जयिनी नगरी देनी, जिसके महलों के शिखर, अत्यन्त निकटवर्ती सेनाओं के देखने में उत्कण्ठित हुई मत: कामिनियों ( रूपवती व मुवती रमणियों) से व्याप्त थे और जिसमें ध्वजारोपण-आदि उत्सव-शोभा का संगम किया गया था एवं जिसने अपनी लक्ष्मी द्वारा इन्द्र-भषन तिरस्कृत ( लजित ) किये थे तब निश्चय से मेरी बुद्धिरूपी
*. निखिल' क० | * 'रमावलयः' का। A 'चतुष्क' इति टिप्पणी। सिक्किमक्षरयः' इति क० ग.।। शारिर्मचारः लियो' इति कोशप्रामाण्यानस्वान्तोऽपि मजरिशमः। मु. प्रति से संकलित–सम्पादक ।
१. रूपप्राय-अलंबार । २. जाति-अलंकार । ३. उक्तंच-आत्मा पर्दा मुनिर्धर्ममुरगोसवणो रविः । हूंस इत्युच्यते विद्भिरेते कार्यविचक्षणैः ॥' ४. उच-रूपयोक्नसम्पमा नारी स्यान्मसकामिनी' । यश की सं० टी. पू. ३४१ से संकलित-सम्पादक