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________________ द्वितीय श्राश्वासः कभीधान काजीगुर्ण सोरणपुष्पमालाः । नितम्ब ध्वजावली भुजाः स्वयं मे पुरः पुरी भुतमिवाशनोति ॥ १३६ ॥ प्रभागेषु पुरानानां मोलोत्पलस्पधिभिरक्ष में । आनन्दमावादियमम्बरश्रीः पुष्पोपहाराय कृताक्षेत्र ॥ २३७ ॥ Tereening विलासिनीनां त्रिकोचनैसफिक विस्वकान्तैः। सिं अमी पुरंधवदनैः प्रकामं वातायनाः पूरितरन्ध्रभागाः । श्रियं वहन्तीय सरःस्थलीनां वीथीविभक्ताम्बु पण्डभाजाम् ॥ २३९ ॥ मनोभव प्रबोधसुधोपलासा र सुन्दरः कामदेवप्रासादसंपादनसूत्रपातकान्तिभिः प्रणयकलहंस कीडनमृणाल जाछेपावलो फिटोः, पुनरुक्तेनेव लाजाअलिवर्षेगात्मानं कफार्थिनो लोकव्य कुसुमितमित्र कुर्वनम्वरश्रीनृत्यहस्तैरिव पवमानचालन संगवङ्गभग उनिभिर्विविश्व वर्णविनिर्मागमनोहरा डम्बरै । तरातरा मुक्तकत्र जन्मणिकिङ्किणीजालमा लामि बल्ली से ऐसी मनोच्च वचनरूपी मअरियों उत्पन्न हुई, जो कि आप सरीखे राजाओं के कानों को विभूषित करने में योग्य कर्तव्यवाली हैं । t सूक्तिमअरियों-मनोज्ञवाणी रूप-मअरियों द्वारा उज्जयिनी का निरूपण - छज्जारूपी नितम्ब (कमर के पीछे का भाग ) शोभा धारण करनेवाली और तोरणों की पुष्पमालारूपी मेला ( करधोनी ) से अलङ्कृत हुई तथा ध्वजा श्रेणीरूपी चन्चल भुजाओं ( बाहुओं) की रचना करनेवाली वह उज्जयिनी नगरी उस अवसर पर ऐसी मालूम पड़ती थी मानों मेरे समक्ष स्वयं नृत्य विस्तारित कर रही है' ||२३६|| उस अवसर पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली आकाशलक्ष्मी विशेष दर्प-वश महलों के अमभागों पर स्थित हुई नगर की कमनीय कामिनियों के नील कमलों को तिरस्कृत करनेवाले नीलकमल - सरीखे - नेत्रों से ऐसी मालूम पड़ती थी - मानों वह मेरे ऊपर पुष्पवृष्टि करने के हेतु मेरा आदर कर रही है" || २३७ ॥ यह नगरी झरोखों के मार्गों से मौंकनेवाली कमनीय कामिनियों के मोतियों के प्रतिबिम्बों से मनोश प्रतीत होनेवाले नेत्रों से संयुक्त हुई उसप्रकार शोभायमान होरही थी जिसप्रकार तारामण्डल से विभूषित दुई सुमेरु पर्वत भूमि शोभायमान होती है २ ।। २३८ ॥ उस अवसर पर कमनीय कामिनियों के मुखों से यथेष्ट आच्छादित प्रदेशोंवाले झरोखों के मार्ग उलप्रकार की शोभा धारण कर रहे थे जिसप्रकार तरङ्ग श्रेणियों द्वारा स्थापित किए हुए कमल-समूहों का आश्रय करनेवाली सरोवर स्थलियाँ शोभायमान होती है || २३६ ॥ तत्पश्चात् - - में ऐसी कटाक्षपूर्ण चितवनों से, जो कि कामदेवरूपी कालसर्प को जागृत करने के लिए चन्द्रकान्त मणियों की वेगपूर्ण वर्षा - सरीखीं शुभ्र व मनोज्ञ थीं एवं जो कामदेवरूपी मंडल को उत्पन्न करने के लिए सूत्रारोपरा - सरीखी ( कामोत्पादक व सूत-सी शुभ्र ) थीं और जो स्नेहरूपी राजहंस की क्रीडा- हेतु सृणाल श्रेणी सरीखी थीं, द्विगुणित ( दुगुनी ) की हुई सरीखी लाजाअलियों A *''स्वष्टभाजाम्' फ= | A 'वन' इति टिप्पणी | A B 1. 'रन्तरातरामुक्तफलक्षणमणिकिंकिणीजालमालाभिः क्र० । प्रति टिप्पणी 1 १. रूपक व उत्प्रेक्षा अलंकार 1 २. उमा व उत्प्रेक्षालंकार | 'मध्ये मध्ये' । B'धारिभिर्मावद्भिर्षा' ३. उपमालंकार 1 ४. उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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