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यशस्विलकपम्पूकाव्ये न हि नियोगिनामसतीजनामामिष भतु यसनाइपरः प्रायेणास्ति जीवनोपापः । स्वामिनो वा नियुक्तानां बीणामिति. प्रसरणनिवारणात् । भवन्ति बार रकोका
नियुकहस्तापितराज्यमारास्तिन्ति ये स्वैरविहारसाराः । बिरालपम्दादितदुग्धमुद्राः स्वपति से मूधिमः क्षितीयाः ॥२४॥ गायेत मार्गः सलिले सिमीना पसरित्रणां व्योम्नि कदाचिदेषः । अध्यक्षसिवेऽपि स्वावलेपा न जायतेऽमात्यजनस्य वृत्तिः ॥२५॥ ध्याभिदौ पथा वैद्यः श्रीमतामाहितीचमः । व्यसनेषु तथा रोशः कुत्यस्ना नियोगिन। ॥२६॥
नियोगिभिविना नास्ति राज्य भूपे हि केवले । तस्मादमी विधातम्या रक्षितम्याश्च यस्मतः ॥२७॥ अधिकारियों को भी विशेष सम्पन्ति मिलती है ॥ १॥" जिस कार मंत्री-आदि अधिकारीवर्ग की। यथेच्छ प्रवृत्ति (रिश्वतखोरी आदि) के सिपाग रागनीसीमिया गागा कोई उपाय प्रायः उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार नियों की यथेच्छ प्रवृत्ति रोकने के सिवाय उनके स्वामियों की जीविका का प्रायः कोई दूसरा उपाय नहीं है।
प्रस्तुत विषय-समर्थक श्लोक
जो राजालोग मन्त्रियों के हाथों पर राज्य-भार समर्पित करते हुए स्वेच्छाचार प्रवृत्ति को मनोरसन मानकर बैठते हैं और निश्चिन्त हुए निद्रा लेते हैं, वे उसप्रकार विवेकहीन ( मूर्ख ) समझे जाते हैं जिसप्रकार ऐसे मानव, जिन्होंने दूध रक्षासंबंधी अपने अक्षरोंषाली मुद्रिका (अलि-भूषण) मार्जार ( विलाव) समूह में आरोपित की है। अर्थात-पिलाव-समूह के लिए दुग्ध-रक्षा का पूर्ण अधिकार दे दिया है, विवेकहीन (मूर्ख) समझे जाते है ॥ २४॥ मछलियों का गमनादि-भार्ग किसी समय जल में जाना जा सकता है और पक्षियों का संचार मार्ग कमी आकाश में जाना जा सकता है परन्तु मन्त्री लोगों का ऐसा आचार ( दाव पैंच-युक्त बर्वाव), जिसमें प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हुए कर्तव्य में भी चारों ओर से अवलेप (कमक्रिया-धोखेवाजी अथवा अदर्शन) किया गया है, नहीं आना जा सकता* ॥ २५ ॥
जिसप्रकार वैद्य धनाज्यों के रोग को वृद्धिंगत करने में प्रयत्नशील होता है उसीप्रकार मंत्री लोग भी राजा को व्यसनों में फंसा देने में प्रयत्नशील उपाय रचनेवाले होते है ॥२६|| निश्चय से मन्त्रियों के विना केवल राजा द्वारा राज्य-संचालन नहीं हो सकता, अतः राजा को राज्य संचालनार्थ मन्त्री नियुक्त करना चाहिए और उनकी सावधानता पूर्वक रक्षा करनी चाहिए' ॥२७॥
प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज ! किसी समय मन्त्रियों के पाराधना-काल की अनुकूलता. युक्त पाँच प्रकार के मन्त्र ( राजनैतिक ज्ञान से होनेवाली सलाह ) के अवसरों पर धर्मविजयी (शत्रु के पादपतन मात्र से संतुष्ट होनेवाला) राजा का अभिप्राय उसप्रकार स्वीकार करनेवाले मैंने जिसप्रकार सत्यवादी (मुनि), धर्मविजय का अद्वितीय अभिप्राय स्वीकार करता है, देष (भाग्य-पुण्यकर्म) की स्थापना करनेवाले 'विद्यामहोदधि' नाम के मंत्री से निम्नप्रकार मंत्र-रक्षा व भाग्य-मुख्यता और पुरुषार्थ उद्योग सिद्धान्त माननेवाले 'चार्वाक अवलोकन' (नास्तिक दर्शन के अनुयायी) नामके मंत्री से निग्नप्रकार
१. दृष्टान्तालंकार अयचा आक्षेपालंकार । २. स्वभाषोफिजाति-अलंकार । ३. दृष्टान्तालंकार अथवा उपमा. लंकार। ४. जाति-अलंकार । ५. विजिगीषवस्तापत्रयो वर्तन्ते-धर्मविषयी लोभविजयी असुरविजयौ चेति । तत्र धर्मविजयी शत्रोः पादपतनमात्रेण तुष्यति, लोभविजयी शत्रोः सर्वस्वं गृहीरवा दध्याति....--संस्कृत टीका से संझलित-सम्पादक