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एवीय भासः
२११ समाधानबारविनिर्षिगतसपथीमन्यायापरभुतानेकाचारविचारिलोक सित्पपारिभिस्तमोपहायोरिव पदार्थदर्शनस्थैर्धर्मस्यैः सह सर्वेषामाश्रमिणामितर व्यवसार विश्वामिणां च कार्याण्यपश्यम् । दुदणे हि राणा कार्याकार्यविपर्यास्माखन्नः कार्यतेऽतिसंघीयते व द्विषद्धिः । नेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष किया था और कानों द्वारा सुना था एवं जो सत्यवादी होते हुए उसप्रकार यथार्थ दृष्टि रखते थे। अर्थात्-वस्तुतत्व (न्याय-अन्याय, प्र उसकार यथार्थ स करते थे जिसप्रकार सूर्य का प्रकाश वस्तुओं को यथार्थ प्रकाशित करता है, समस्त श्राश्रमवासियों ( अपचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ व यदि आश्रमों में रहनेवाले) व समस्त बों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, पैश्य व शूद्रपर्ण) में स्थित हुए प्रजाजनों के कार्य स्वये देखे-उन पर न्यायानुकूल अथवा मण्डल ( देश ) धर्मानुसार विचार किया । मैंने इसलिए समस्त प्रजाजनों की देख-रेख स्वयं की। अर्थात् --उनके कर्तव्यों पर न्यायानुसार या मण्डल धर्मानुसार स्वयं विचार इसलिए किया, क्योंकि जो राजा प्रजा को अपना दर्शन नहीं देवा। अर्थात्-सार्व प्रजा के कार्यों पर न्यायानुसार विचार नहीं करता और उन्हें अधिकारी वर्ग पर छोड़ देता है, उसका कार्य अधिकारी लोग स्वार्थवश विगाड़ देते हैं और शत्रुगण भी उससे बगावत करने तत्पर हो जाते हैं अथवा परास्त कर देते हैं, अतः प्रजा को राजकीय दर्शन सरलता से होना चाहिए। भाषार्थराजपुत्र' वगरनीविकारों ने भी इस बात का समर्थन करते हुए क्रमशः कहा है कि "जो राजा अपने द्वार पर आए हुए विद्वान, धनान, दीन, साधु व पीड़ित पुरुष की उपेक्षा करता है, इसे लक्ष्मी छोड़ देती है। “लियों में आसक्त रहनेवाले राजा का कार्य मंत्रियों द्वारा विगाद दिया जाता है और शत्रुलोग भी उससे युद्ध करने तत्पर हो जाते है ॥ निष्कर्ष-हे मारिदत्त महायज! इसलिए मैंने समस्त प्रजा के कार्यों ( शिष्टपालन व दुष्टनिप्रह-आदि) पर स्वयं न्यायानुकूल विचार किया। क्योंकि राजा को व्यसनों (जुमा खेलना व परखी-सेवन-आदि) में फंसाने के सिवाय मंत्री-आदि अधिकारियों की जीविका का कोई दूसरा उपाय प्रायः उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार पति को ध्यसनों में फँसाने के सिवाय व्यभिचारिणी स्त्रियों की जीविका का दूसरा उपाय प्रायः नही है। अर्थात-जिसप्रकार पति को व्यसनों में फंसा देने से व्यभिचारिणी त्रियों का यथेच्छ पर्यटन होता है उसीप्रकार राजा करे व्यसनों में फँसा देने से मन्त्रियों की भी यथेच्छ प्रवृत्ति होती है, अर्थात्-वे निरङकुश होकर लौंप-घूसश्रादि द्वारा प्रजा से यथेष्ट धन-संग्रह करते हैं।
भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत आचार्य रैभ्य' विद्वान् ने भी उक्त बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि जिसप्रकार धनान्यों की रोग-वृद्धि छोड़कर प्रायः वैद्यों की जीविका का कोई दूसरा उपाय नहीं है उसीप्रकार राजा को व्यसनों में फंसाने के सिवाय मंत्री-आदि अधिकारियों की जीविका का भी कोई दूसरा उपाय प्रायः नहीं है।" "जिसप्रकार धनिकों की बीमारी का इलाज करने में वैचों को विशेष सम्पत्ति प्राप्त होती है उसीप्रकार स्वामी (राजा) को व्यसनों में फंसा देने से मंत्री-मावि
1 'सत्यमादिभिः' स. प्रती नास्ति, अन्यत्र प्रतिषु वरांचति-सम्पादकः। । 'इतरव्यवहार विश्रमिणा । १. तथा वं राजपुत्रः-शानिन पनि दीनं योगिनं बार्तिसंयुतं । धारस्थं य उपेक्षेत स श्यिा सहपेक्ष्यते ॥३॥ १. तयार गर्गः-श्रीसमासफधित्तो या शितिपः संप्रजायते । बामतो सर्ववस्येच सचिर्नीयतेऽरिभिः ॥1॥ ३. समान सोमदेव परि:-"वषेषु श्रीमता व्याधिवर्धनादिव नियोगिषु भतृ व्यसनादपरो नास्ति जीवनोपायः" ४. तावरेभ्यः-खरापो रया भ्याधियाना निधिरतमः । नियोगिनां तपा केवः स्वामिश्यससंमक ॥१॥
नीतिमाक्यामृत (भाषा कायमैत) पू. २५६-२५५ से संग्रहात-सम्पादक