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________________ हवीय आधाघः कदाचिसचिवसेवावसरामुले मनाला विशोषय महीपाल मन्त्रकायामशेषतः । अवुकोहति न स्मातुमस्का रसिरक्षस्थात् ॥२८॥ पत:-एक विपरसो हन्ति अस्पोका हन्यते । सबन्धुराष्ट्र राजाने इन्स्येको मन्त्रविष्तषः ॥२९॥ सब तेजोनिदेव सर्वसामानः । को नाम पयिन्मन्त्र प्रदीप मुममेरिव ॥३०॥ चन्द्रादिवाम्य तत्कान्ते सूर्यात्तेजस्वदस्मनि । स्वो गुणनिषेनधि मतिमांडशि वायते ॥३१॥ पुरुषार्थ की श्रेष्ठता एवं देष और पुरुषार्थ दोनों की स्थापना करनेवाले 'कविकुलशेखर' नाम के मंत्री से निम्नप्रकार देव व भाग्य दोनों की मुख्यता तथा 'पायसर्वज्ञ' नाम के नवीन मन्त्री से, उक्त मन्त्रियों के निम्नप्रकार अप्राकरणिक कथन का खंडन तथा राजनैतिक प्राकरणिक सिद्धान्त और ऐसे 'नीतिबृहस्पति नाम के मंत्री से, जिसने समस्त मन्त्रियों में अपनी मुख्य स्थिति प्राप्त की थी, [ निम्नप्रकार राजनैतिक सिद्धान्तों की विशेषता ] भषण करते हुए, लक्ष्मी मुद्रा के चिधुवाली ( लक्ष्मी देनेवाली) इति कर्तव्यता क्रिया ( कर्तव्य-निश्चय) को उसपर इस्तगत (स्वीकार ) किया जिसप्रकार लक्ष्मी की मुद्रा (छाप) वाली सुवर्ण-मुद्रिका (अँगूठी ) हस्तगत (स्वीकार ) की जाती है। अर्थात्-अँगुलि में धारण की जानी है। तत्पश्चात् मैंने यथावसर सन्धि (मैत्री करना), विग्रह (युद्ध करना ), यान (शत्रु पर पढ़ाई करना), आसन (शत्रु की उपेक्षा करना ), संश्रय (भात्मसमर्पण करना ) व धौभाष ( भेद करना अर्थात् बलिष्ठ शत्रु के साथ सन्धि कस्ना और निर्थल के साथ युद्ध करना अयषा बलिष्ठ शत्रु के साय सन्धि पूर्वक युद्ध करना ) इन छह राजाओं के गुणों (राज्यवृद्धि के उपायों ) का अनुष्ठान किया। देव ( भाग्य ) सिद्धान्त के समर्थक मामोदधि नाम के मंत्री का कथन-- हे राजन् ! मन्त्र-गृह को समस्त प्रकार से विशुद्ध कीजिए। अर्थात्-मन्त्रशाला में अधिकार न रखनेवाले पुरुष को यहाँ से निकालिए । क्योंकि मन्त्र-भेद करनेवाला पुरुष उसप्रकार मन्त्रशाला में ठहरने के योग्य नहीं होता जिसप्रकार संभोग क्रीमा में अयोग्य पुरुष ठहरने के योग्य नहीं होता ॥२॥ क्योंकि विषरस (तरल जहर) एक पुरुष का घात करता है और शस्त्र द्वारा भी एक पुरुष मारा जाता है, जब कि केवल मन्त्र-भेद राआ को कुटुम्ब प राष्ट्र समेत मार देता है Rell हे राजन् ! जिसप्रकार समस्त लोक के पदार्थों को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय नेत्र सरीखे और प्रकाश-निधि ( खजाने ) सूर्य के लिए कोई पुरुष दीपक नहीं दिखा सकता उसीप्रकार ज्ञान-निधि (खजाने ) और समस्त लोक के पदार्थों को जानने के लिए अद्वितीय नेत्रशाली ऐसे आपके लिए भी कोई पुरुष मन्त्र (राजनैतिक झानराली सलाह) बोध नहीं करा सकता। अभिशय यह है कि जिसप्रकार तेजोनिधि व सर्वतोक-लोचन-प्राय सूर्य को दीपक दिखाना निरर्थक है उसीप्रकार शानिषि आपको भी मन्त्र का बोध कपना निरर्थक है'।३॥ हे पजन् ! जिसप्रकार चन्द्रमा के उदय से चन्द्रकान्त मणि से जल प्रवाहित ( मरना) होता है और सूर्य-किरणें से सूर्यकान्त मरिण से अमि उत्पन्न होती है पसीप्रकार ज्ञान-निधि पाप से हम सरीखे १. सथा थाह सोमदेवहि-सन्धिविग्रहराचासनसंश्रया धौभाषाः पागुम्यं ॥ १॥ पनन्भः सन्धिः ॥२॥ अपरामो विमहः ॥३॥ अभ्युदयो सनं ॥४॥ उपेक्षचमातलम् ॥५॥ परस्पास्मार्पण संभवः ॥६॥ एकेन सह सन्यायान्यन सह विप्रहकरणमेहत्र वा क्षत्री सन्धानपूर्व विप्रो घोभावः ॥णा प्रथमपले सन्धीयमानो विग्रहमाणे विजिगीषुरिति हूँधीभाषो मुस्थाश्रयः ॥४॥ देखिए हमारे द्वारा हिन्दी अनुवाद किया दुभा नौतितक्यास्त पृष्ठ ३७४ (ममहार समुद्देश )-सम्पादक १. उपमालंकार। ३. क्यतिरेललंकार। ४. रयान्सालंधर । २
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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