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यशस्तिल कचम्पूकाव्ये
दो नाम राजा |
बालका एमीसमागमः कुलवृद्धानां प्रतिपक्ष पितृधनसपोवन लोकस्वाजात विद्यावृद्धगुरुकुलपासनः समानशीलत्र्यसन चारित्र सचित्र परिवृतः समादिभवता च तासयीकेन वयसा निरङ्कुशतां नीयमानः, दस्वयं परिगृहीतवीरपरिका विधिः, उभयकः कश्राम्योन्याभिमुख निष्ठीन मक्शौर्यश्रीबेणिदण्डानुकारिणा दानद्रवेग श्यामतपोभितिभिः, मदिरामस्य । दोन्मत्रमधुकर राजन डिपिङमा डम्बरैः क्रोधानज्वालाकराललोचनापतिसकलदिक्पाल साध्वसः अनुरसारधिरथोन्माद्यमियो' दस्तद्दर व निष्ठुर मिट सम्धुपाथः प्रबाहलावितपुरसदनैः,
का राजा ), भरत (ऋषभदेव के पुत्र ), भगीरथ ( सगरपुत्र ), और भगदत्त ( राजा विशेष ) - श्रादि पराक्रमी राजाओं को तिरस्कृत किया था ।
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जिसने वाल्यकाल में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त की थी। उसके कुलों (पिता व दादा आदि ) में से कुछ तो स्वर्गवासी और कुछ सांसारिक विषयों से बिरक होकर दीक्षित ( वपस्वी ) हो चुके थे इसलिए उसे शास्त्रज्ञान से महत्ता प्राप्त किये हुए गुरुकुल ( विद्वानों व प्रशस्त राजमन्त्रियों का समूह ) से शास्त्रज्ञान के संचय करने का अवसर ही नहीं मिल सका, जिसके फलस्वरूप ( मूर्ख रद्द जाने के कारण ) वह ऐसे भाणों के पुत्रों से जो इसी के समान दुष्ट प्रकृति, दुर्व्यसनी व दुराचारी थे, वेष्टित रहता थाउनका कुसन करता था। जिसके परिणाम स्वरूप युवावस्था के प्राप्त होने पर वह मारिदत्त राजा निरंकुश -- उच्कुल (सदाचार की मर्यादा को उड़न करनेवाला ) हो गया। नीतिनियों' ने भी कहा है कि “जवानी, धनसम्पत्ति, ऐश्वर्य और अज्ञान, इनमें से प्राप्त हुई एक-एक वस्तु भी मानव को अनयकुक्मों में प्रेरित करती है, और जिस मानव में उक्त चारों वस्तुएँ यौवन व धनादि - इडी मौजूद हो. उसके अनर्थ का तो कहना ही क्या है। अर्थात् उसके अनर्थ की तो कोई सीमा ही नहीं रहती । प्राकरणिक प्रवचन ग्रह है कि प्रस्तुत मारिदत्त राजा में उक्त चारों अनर्थकारक वस्तुओं का सम्मिश्रण था, इसलिए वह युवावस्था प्राप्त होने पर राज्यलक्ष्मी आदि की मदहोशी- यश कुत्सन में पड़कर निरंकुश ( स्वच्छन्द ) होगया था । वह ( मारिदस राजा ) कभी स्वयं बीरों का बाना ( शिरस्त्राण लेहटोप व बख्तर आदि ) धारण किये हुए किसी समय ऐसे हाथियों के साथ क्रीड़ा करता था। जिनकी गण्डस्थलभित्तियों, दोनों ( वाम और दक्षिण ) गण्डस्थलों के मध्यदेश में परस्पर सम्मुख बैठी हुई मनश्री मदजल रूप लक्ष्मी और शौर्यश्री के बँधे हुए केशपाश के समान [ मरने वाले ] मदजल से श्यामवर्णवाली होचुकी थी। जिन्होंने गण्डस्थलों से प्रवाहित मद ( दानजल ) रूप मदिरा की दुरव्यापी सुगन्धि का पान करने से हर्षित हुए भँवरों के शब्दों द्वारा पटों ( नगाड़ों की ध्वनि द्विगुणित दुगुनी ) अथवा निरस्कृत की है ।
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जिन्होंने क्रोधाग्नि की ज्वालाओं से भयानक नेत्रों द्वारा समस्त इन्द्रादिकों को अथवा शत्रुभूत राजाओं को भय उत्पन्न किया है। जिन्होंने सूर्य का रथ नीचे गिरा देने के छल से ऊपर उठाये हुए शुण्डाइण्ड (सूड़ों) से निर्भयता पूर्वक पट्टी कर (ड) लालारूप जलप्रवाह से देवविमान प्रक्षालित किये हैं ।
(क, ख, ग, घ ) प्रतियों में संकलन किया गया है । 'मिथोदरत' पाठ
१ क शुद्ध पाठ हलिस सुप्रति में है, जो कि
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सम्पादक २, तथा च विष्णुशमां – यो नः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयं ॥ १ ॥
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हितोपदेश से संकलित - सम्पादक