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________________ प्रथम आवास करापलेपभयभ्रस्यदाशाकरटिवटर, प्रधानजवकम्पितञ्चरणिदेवतः, चरणम्यासनमदुगोलक [भार] दलितोषकमावली, प्रश्पकपुर:पक्षत्रमिप्रारम्भविजीभतप्रभवनजनितकुलशैलशिखरवियटन, कटकण्डूयनविनोदभनमहामहीपनिवाही, समस्यामा संमतुसोचछलफलोगितामयविधिमनोपहारसंतपितमपुरुष:, मनस्नु नृतसंहारसमरिख, दृणिषु क्सकालामिरिस, कमेषु विनिवेशितविशसनकर्मभिरिव, करेषु निहितवधक्रियापारित, पादेषु संपादिरावासपारित्र, बालधि , नियुकपमारिष निजमदगम्भानुबन्धवाधितापरहिरदमदमे स्यन्दनवेदमुपतिष्ठमानैः, मरशिरोदर्श प्रधाचनिः, सुरगालोकं पुरः प्रनिभासमानैः, सपनद्विपमाघाघ्रायं प्रक्षुभ्यनिः, प्रतिरोभमणिस्वभाव संरम्भमाणैः, झमेलकविषय विनिहन्धतिः, गोचरं परिलुम्पमानैः, प्रलयकालानिलयसिताचसकुलविभीषणः, प्रतिकरिशयन गिरिकलीलालुलितमहाखिलाशानिमिगणशैलेः, फरनिष्पारणपातिससालवनैः, दन्तकोसिमुत्पारितपुरकपाः, स्वकीयबलविजिज्ञापविमरव रविरपाड़म्बरं रदेषु जिनकी शुण्डादण्डों के संचार के भय से दिग्गजेन्द्रों के समूह इधर-उधर भाग रहे हैं। जिन्होंने शीघ्र गमन के बेग से पृथिवी की अधिष्ठात्री देवता काम्पत की है। जिन्होंने परों के स्थापन से झुक हुए पृथिवी मंडल के भार से धरणेन्द्र ( शेषनाग ) के फणामएडल चूणीकृत (चूर-चूर ) कर दिये हैं। पृष्ठभाग, अप्रभाग घ वाम-दक्षिण पार्श्व भागों के चक सरीखे भ्रमण के प्रारम्भ से बढ़ी हुई वायु द्वारा, जिन्होंने कुलपर्वतों के शिखर विघटित किये हैं। जिन्होंने गएडस्थलों की खुजली खुजाने की कीड़ा से विशाल वृक्षों के समूह तोड़ दिए हैं। जिन्होंने, समस्त प्राणियों का चूर्ण (घात) करने से अत्यधिक उछलते हुए खन की धाराओं की अखण्ड पूजा द्वारा राक्षसों को सम्तय किया है। जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे-मानी-जिन्होंने अपने चित्तों में प्रलयकाल को ही स्थापित किया है। जो ऐसे मालूम पड़ते थेमानों-जिन्होंने अपने नेत्रों में प्रलयकालीन अग्नि व प्रलयकालीन रुद्र को ही धारण किया है। इसीप्रकार जो ऐसे ज्ञात होते थे-मानों-जिन्होंने दाँतों में हिंसा कर्म को ही आरोपित किया है। एवं मानों जिन्होंने शुण्जादण्डों में हिंसा करने का उपाय ही स्थापन किया है। एवं मानों-जिन्होंने पैरों में वनपात को उत्पन्न कराया है । अर्थात्--जिनके चरणों के निक्षेप से ऐसा प्रतीत होता था, मानों-बापान ही होरहा है। और मानों-जिन्होंने पूँछों में यमराज के दण्डों को ही स्थापित किया है। जिन्होंने अपने मदजज के गंध की निरन्तर प्रवृत्ति से दूसरे हाधियों का मद पीड़ित किया है। जो, रथ को भलीभाँति जानकर उसे भङ्ग करने के उद्देश्य से ग्रहण करने के लिए प्राप्त होरहे हैं। जो मानव का मस्तक देखकर उसपर हमला ( आक्रमण ) करने के हेतु उस ओर दौड़े आरहे हैं। जो घोड़ों को देखकर उन सहित रथों पर आक्रमणपूर्वक चमक रहे है। अर्थान्-उनके सामने टूट पड़ते हैं। जो शत्रुओं के हाथियों की मदांध सूंघकर क्षुभित हो रहे हैं। जो शत्रु संबंधी हाथियों के घंटास्फालन का शब्द सुनकर कुपित होरहे हैं। जो ऊँटों का स्थान स्वीकार कर रहें हैं। अर्थान्-जो आक्रमण-हेतु ऊँटों के सम्मुख प्राप्त होरहे हैं। जो छत्र-भङ्ग कर रहें है। जो, प्रलय कालीन प्रचण्ड वायु द्वारा उड़ाए हुए पर्वत-समूहों के समान भयंकर हैं। जिन्होंने गेंद की क्रीड़ा-समान सरलता पूर्वक उखाड़े हुए विशाल चट्टानों के खण्डों द्वारा क्षुद्रपर्वत इसलिए चूर-चूर किये हैं: क्योंकि मानों-उन्हें. उनमें-शुद्रपर्ववों मेंशत्रु-हाथियों की शक्का-भ्रान्ति-उत्पन्न होगई थी। शुण्डादरडों के ताड़न द्वारा जिन्होंने शालवृक्षों के वन जड़ से उखाड़ दिए हैं। जिन्होंने दाँतों के अग्रभागों द्वारा नगर के दरवाजों के किवाड़ तोड़कर नीचे गिरा दिये है। जो अपने पराक्रम का बोध (ज्ञान ! कराने की इन्छा से ही मानों-दम्तरूप मुसलों पर सूर्य-रथ को महान् धुरा का विस्तार धारण किये हुए हैं । १. ' विनः ' इति इ. लि. म. (क) पनी पारः |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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