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। यरास्तिलकरम्पुराव्ये पारिवाजापनकायकोलोरामयोः सूसुभास्सेषु म नृप्यति, स्वस्तमोबहुतेषु प्राणिषु प्रथमतरमेष धर्मोपदेशः मोति महती शिरुमम्पधा, भवति पारधीरणाय वक्तुः, सदेनमभ्यस्तरसप्रसरै बोभिल्लासयामि, भयदिनो हि समय र स्वादुफापोभनमावि दिसतो पुति मन्दानुनमपि भवत्शायस्यामभिमतावासये' स्यबगस्य पुनरपि सममम्तापतिमुपरयितुमप मेपवितरिया : प्रायमरचकितमासकोकेन्द्रः । मलिकालवाधिसेतुर्जयतु सुपः समरपोण्डीरः ॥ १५ ॥ वर्णः ॥
समसमासवाम पकाम कमलालय निखिलमय शौर्यनिगद कदमैकमोहए ।
भामिणममसमामबल रिकाल अप जीव कामद ॥ १७६ ॥ मात्रा ॥ इति महति मावि विधिमामि निषितस्तु नो पारयामि । वक्तु त्वदीयगुणगरिमधाम सवेशवचनविषयं हि नाम ।। १७७ ।।
चतुष्पदी॥ प्रकरण में यह मारिदत पजा, जिनके दर्शन से इसकी तृप्ति का अन्त नहीं हुया, ऐसे हम लोगों भीमपुर बरनामृत की धारा से भव भी सन्तुष्ट नहीं होपाया। [अतः हमसे विशेष सूक्त सुधारसमधुरचनामत का पान करत नाहता है ] गण गानो मन से मदोन्मत्त व अज्ञानियों को सबसे पहले धर्म-क्या सुनाने से उनके मस्तक में शूल ( पीड़ा) उत्पन्न होजाता है, जिसके फलस्वरूप पक्का म भी अनादर होने लगता है। इसलिए मैं इसे अभ्यस्त ( परिचित) शृङ्गार घ वीररस-पूर्ण वचनामृत से माल्हादित करना चाहता हूँ। क्योंकि नीतिनिष्टों ने कहा है कि जिसप्रकार विन्ध्याचल से लाया हुआ हायी मधुर फलों का प्रलोभन देने से वश में हो जाता है, उसीप्रकार धर्मतत्व से अनभिज्ञ श्रोता भी वक्ता द्वारा की जानेवाली उसकी इच्छानुकूल प्रवृत्ति से पका के वश में होजाता है, जिसके परिणाम स्वरूप वक्ता को उससे भविष्य में बाम्छित फल की प्राप्ति होती है।'
___ उक प्रकार निश्चय करके सर्वश्री अभयरुचि कुमार ( क्षुल्लकली ) ने पुनः प्रस्तुत मारिदत्त राजा का पुणगान करना प्रारंभ किया । वर्णनस्तुति
'जो मारिदत्त महाराज शत्रुरूप देस्यों का अभिमान चूर-चूर करनेवाले हैं, जिनके प्रचुर प्रताप से विवापर राजा मयमीत होते हैं एवं जो पंचमकाल-रूपी समुद्र से पार करने के लिए पुलसमान हैं और " बुद्धभूमि में सौण्डीर ( त्याग व पराक्रम से विख्यात है, यह संसार में सर्वोत्कृष्टरूप से विराजमान होवे । अर्थात्- उसकी हम भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं॥१७॥समस्त कल्याणों के धाम (मन्दिर), समस्त जगत की विजय के इच्छुक, लक्मी-निधान, समस्त नीतिशासों के आधार, वीरता का कथन करनेवाले, संग्राम करने का अद्वितीय मनोरथ रखनेवाले, सिद्धान्त में सूचित की हुई अनोखी शक्ति से सम्पन्न, शत्रुओं के लिए यमराज तुल्य अभिलषित वस्तु देनेवाले ऐसे हे राजन्! आप सर्वोत्कृष्ट रूप से वर्तमान होते हुए दीर्घायु हो ॥१७६।। हे पजन् ! आपत्र गुणगरिमारूप तेज, वीर्थकर सर्पक्ष की प्रशस्त पाणी द्वारा ही निरूपण किया बायकता है। आप वर्णाश्रम में वर्तमान समस्त लोक के गुरु होने से महान है: अतः आपका समस्त गुणगान हमारी शक्ति के बाहिर है, इसलिए हम आप का अल्प गुणगान करते हैं॥१७)
१. उपमा घर । २. रूपचमहार। * या घामशब्दः स्वभावेन अकारान्तः न तु नान्तः, सता हे विष्ट 'सामान्याम' I.लि. सदि. (क) प्रति से संकलित-सम्पादक। ३. मात्राप्छन्दः । ४. भतिशयालबार । चतुष्पदी ।
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