SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एम= ए० शास्त्री जयपुर के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। रचना शक संवत् १०८ लिपि सं० १८६६ का है। आरम्भ निम्न प्रकार है: इसमें १२३ x ६ इच्छ की साईज के २५६ पत्र है । प्रति विशेष शुद्ध व टिप्पणी-मण्डित है । इसका श्रियं कुवलयानन्द स. दिवमहोदयः । देवन्द्रप्रभः पुष्यमासासिनी ॥ १ ॥ -- ३. 'ग' प्रति का परिचय - यह ६० सिटि प्रति श्री दि जैन बड़ाधड़ा के पंचायती दि जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार की है, जो कि श्री बार मिलापचन्द्रजी B. So LL. 13. एडवोकेट सभापति महोदय एवं श्री : धर्मः सेठ नौरतमलजी सेठी सराफ और कोषाध्यक्ष तथा युवराजपदस्थ श्री० पं० चिन्मादजी के अनुग्रह सौजन्य से हुई थी। इसमें १९३३ इञ्च की साईज के ४०४ पत्र हूँ। यह प्रति विशेष शुद्ध एवं सटिप्पण है। प्रस्तुत प्रति वि सं १६५४ के तपसि मास में गङ्गाविष्णु नाम के किसी विद्वान द्वारा लिखा गई है। प्रांत का आरम्भ ॐॐॐ परमात्मने नमः । श्रियं कुवलयानन्द प्रसादितमहादयः । देवन्द्रप्रभः पुष्याजगन्मानवासिनीम् ॥ १ ॥ श्रीरस्तु । श्रीः । ५ विशेष प्रस्तुत प्रति आधार से किया हुआ यश उत्तरार्द्ध का विशेष उपयोगी व महत्त्वपूर्ण संशोधन (अनेकान्त वर्प किरण -२ ) की दो प्रति हमें श्री० पं० दीपचन्द्रजी शास्त्री पांड्या ककड़ा ने प्रदान की थीं एतदर्थं अनेक धन्यवाद । उक्त संशोधन से भी हमें 'तिलक' उत्तरार्ध के संस्कृत पाठ-संशोधन में यथेष्ट सहायता मिली । ४. 'घ' प्रति का परिचय - यह ६० लि० सटिः प्रति श्री दिन जैन बड़ामन्दिर वीसपन्थ आम्नाय सीकर के शाकभण्डार से श्री० पं० केशव देवजी शास्त्री व श्री० पं० पदमचन्द्रजी शास्त्री के अनुग्रह व सौजन्य से प्राप्त हुइ थी। इसमें १३४ ९इच की साईज के २५ पत्र हैं। लिपि विशेष स्पष्ट व शुद्ध है। इसका प्रतिलिपि फाल्गुन कृ० ६ शनिवार सं १६१० को श्री० पं० चिमनरामजी के पौत्र व शिष्य पं 'महाचन्द्र' विद्वान् द्वारा की गई। प्रति का आरम्भ - ॐनमः सिद्धेभ्यः । श्रियं कुवलयानंप्रतिमहोदयः इत्यादि मु- प्रतिवत् है । अन्त में वर्गः पदं वाक्यविधिः समासो इस्वादि सु प्रतिवत्। धन्य संख्या ८००० शुभं भूयात् । योऽस्तु । इसका अन्तिम लेख - अथास्मिन् शुभसंवत्सरे विक्रमादित्यसमयात् संवत् १६१० का प्रवर्तमा ने फाल्गुनमासे कृष्णपचे तिथौ पष्ट्यां ६ शनिवासरे मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये अजमेर गच्छे श्रीमदाचार्यवर आचार्यजी श्री श्री श्री श्री १०८ श्री गुणचन्द्रजी तत्पट्टे आचार्यजी श्री श्री १. प्रसादीकृतः दत इत्यर्थः । २. चन्द्रवत् समास इत्यादि मु० प्रतिका 1 पूखद् गौरा प्रभा यस्य । अखोर — वर्णः पदं वाक्यविधिः t ३. प्रसादित निर्मलीकृतो महादयो येन सः । प्रसादीवृतः दस इत्यर्थः । चन्द्रस्य मृगाङ्कस्यैव प्रभा दीप्तिर्य पुयात्। पुष्टि क्रियात्। चन्द्रः कर्पूरः तत्प्रभा यस्य सः । हिमांशु बदमाश्चन्द्रः घनसार चन्द्रसंशः मतं वतु ं जिलाधीशपालिना ॥ १ ॥ श्यास । भयत्राप्यमरः । इसके अखीर में---वर्षे वेद-रारेभ-शीतगुमिते मासे तपस्याहये तथ्य नाम् । गंगा विष्णुरितिप्रश्रागतेनाभिख्यया निर्मिता ग्रन्यस्यास्य लिः समाप्तिमगमद्गुर्व
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy