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सूतीय बाधास: स्पामिकासंपादितगगमगादोपलकुष्टिमाछायम् , दरवापाटलफलकान्तिकुटिलकटितटोलासालासकाम, संध्यागर्भविमामताधियसंदर्भनिर्भर मभ इव, देव, इसमेकहोलिकाविलं : ग्रामिसं बलम् ।
इसरोकाचनकान्तकायपरिकाम् , कोलम्भितकतरीकणयकृपाणप्रासपशिशणासनम् , मासनविशेषवशातिविधुत मितवपुरोमिसकुम्भिनीभागम , भागभागापिसानेकवर्णवसनष्टितोष्णीषम् , मानवधिप्रकारप्रसारसबकधुम्वितशिसम् विजयभीनिवासदनमिषेदं देव, तुरणवेगवर्णनोदोणं यथायथकथामौत्तरपथं यहम् ।
इतस्य जयालक्ष्मीवोजमुखमण्डलश्यामशरीरप्रमापटा कुवलयितनभःसरोभिन्नवहानासवासारसौरभागमगडपिताश्रेषदिग्विलासिमीबपना कलिकामलानभुजगाशमबहवित्रासिससावित्रस्यन्दनोरगरमभिः पिवमामलापताकावणाकी श्याम कान्ति द्वारा जिसने आकाश में गरुड़मणियों से बनी हुई कृत्रिम भूमि की शोभा उत्पन्न की थी। जिसका इस्त ऐसे कुटिल कमर-गाकरे उल्लासित मान्दिन) करने का मछुन था, जो कि हिंगुलक रस से लाल वर्श हुई ढाल या काष्ठ की पट्टी की कान्ति से व्याप्त था। इसलिए जो ( सैन्य ) संध्याकालीन मेषों के मध्य में संचार करती हुई वकामियों की श्रेणी ( समूह ) से संयुक्त हुए आकाश-सरीखा शोभायमान होरहा था। इसीप्रकार जो अनेक प्रकार की होलिकाओं ( युद्धक्रियाओं अथवा फंदना उछलयाना आदि क्रियाओं) से व्यास था।
हे राजन् ! इसीप्रकार एक पार्श्वभाग में उत्तर दिशा के मार्ग से आया हुश्रा ऐसा सैन्य देखिए, जिसका शारीरिक परिकर (आरम्भ ) तपे हुए सुवर्ण-सरीखा मनोहर है। जिसने हस्तों द्वारा छुरी, लोहे का वाण विशेष, स्वग, भाला, और विशेष तीक्ष्ण नौकवाला भाला एवं धनुष उठाया है। जिसने [ पीठ पर ] बैठने के ढक विशेष ( दोनों ओर पड़ी मारते हुए सवार रहना ) के अधीन होने के कारण दौड़ते हुए घोड़ों की टापों से पृथ्वीभाग संचालित किया है। जिसने मध्य-मभ्य में बेष्टित हुए अनेक रंग (सफेद, पीले, हरे, लाल व काले ) याले वनों से अपना केशसमूह बाँधा है। जिसके मस्तक का अमभाग निस्सीम ( बेहद ) भाँति के फूलों के गुच्छों से उसप्रकार चुम्बित-छुआ हुश्रा-है जिसप्रकार विजयलक्ष्मी के निवास का वन अनेक प्रकार के फूलों के गुच्छों से चुम्बित (व्याप्त) होता है एवं जो घोड़ों के बेगपूर्षक संचार की प्रशंसा करने में उत्कट व सत्यवादी है।
हे राजन् ! इसीप्रकार एक तरफ यह । प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ) यमुना नदी के तटवर्ती नगर का ऐसा सैन्य देखिए, जिसने ऐसे हाथियों द्वारा समस्त दिग्मण्डल श्यामलित (श्यामवर्णयुक्त) किया है, जिन्होंने विजयलक्ष्मी के कुंच (स्तन) कज्ञों के मुखमण्डल (चूचुकप्रदेश ) सदृश श्याम शरीर की कान्ति-समूह द्वारा आकाशरूपी ताजाय को कुवलायत (नील कमलों से व्याप्त ) किया है। जिनके [गण्डस्थलों ] से मद । दानजल ) प्रवाहित हो रहा था, जिसके फलस्वरूप उस मदरूपी मद्य की वेगशाली वर्षा संबंधी सुगन्धि की प्राप्ति से जिन्होंने समस्त दिशारूपी स्त्रियों के मुख गण्डूषित (कुरलों से व्याप्त ) किये हैं। जिन्होंने [ अपने ऊपर स्थित हुई ] ध्वजाओं के अग्रभागों पर लगे हुए मोरपंखों द्वारा सूर्य-रथ के सर्प-बन्धन भय में प्राप्त कराये हैं। वायु की सामर्थ्य से कम्पित होते हुए
लालसफरतया संध्याश्रम संभ्रान्तायसन्दर्भनिभरं नम इय' ३० । प्राविठं बलम् । * 'मितकुखुर' क. ग. I +ोत्तरापथं बलम्' क ख ग च० । 'पवमामन्यलत्पताका, क ।
A. उच-स्वादुसल कुवलयमय नीलाम्युजन्म । इन्दीवरं च मीलेऽस्मिन्सिते फुमदकरवे यश. सं. टी.पू. ४६५ से समुद्धृत-सम्पादक