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तृतीय आश्वासः
३५५ प्रसर हरितमणिप्रकाशपलाशपेशलप्रतानचितमोचमेचकरुचिरचिताम्बरापमापकालिन्दीसंगम बायकुलकुरबकतिलकचम्पकाशोकसहकारकिसलयकुलखेलवाचालशुकसारिक विकचकिचकिलातिमुकाम लकारामकृयुमस्तवकतारक्तिलतामण्पं निरन्तनिष्पन्ददुर्दिमजलकलशतवालुकालवालविरुदयवप्ररोहपाण्डरितभितिभागं स्फुटस्कुलमालपाटलीप्रसूनीपहारसौरभास्वादलुब्धः मधुकरारणधवलकीवाचं मदोत्कलकोककुक्कुमकुररघककलहंसाधने क्रपयःपतपक्षचापलोमासरोजरजापुञ्जपितरजालकेखिदीपिसान्तरालपुमिनपसाधितप्रसादवेदिमध्यसंवतसलिलतुलिक शयनाभ्यावतीर्णयुवर्गमणिरजतभाजनप्रिन्यस्मानालयमार,स्मृगनाभिकरपरिमलोवाहिनारिपूरं पर्यन्तयन्त्रमारवामिपियमानस्थलकमलिनी केदार विविधयालबदनविनिर्मलजलधाराध्यक्तिलयलास्यमानभवनाङ्गणबहिण चन्द्रकान्तमयमृणालविलमत्रसोतमेतर्यमाणत्रिमोदपाल कश्कियिकीमागसीकरासारसूत्रि. ताङ्गनालकमुक्ताफलाभरणे मकरमुखमुक्तनिझरनोहारोप्लास्मानकामिनी कुचकुम्भचन्दनस्थासक विलासवालरोक्नवानरामके भार से मुड़े हुए या टेड़े हुए सुपारी-वृक्षों के विस्तार द्वारा सूर्य कान्ति का प्रसार – फैलावनिराकरण किया गया है। जहाँपर हरतर्माण' ( मरकतारण ) के प्रकाश सरीखे (हरित ) केला के पत्तों से अत्यन्त मनोहर विस्तारवाले केला-वृक्षों की नीलकान्ति द्वारा आकाशगङ्गा में दूसरी यमुना नदी का गम रचा गया है। जहाँपर नवीम बकुल ( मौलसिरी-वृक्ष ), कुरबक ( लालामण्डी-वृश्न), तिलकक्ष ( विलपुष्प), चंपावृक्ष, अशोकवृक्ष और विशेष सुगन्धि आम्रवृक्ष, इनका कोपल-णियों पर विशेष शब्द करनेवाली तोता-मैनाएँ क्रीड़ा कर रही है। जहाँपर प्रफुल्लित हुए मंगरक-पुष्प, सुरपणीपुष्प, व मल्लिकापुष्पों के बगीचे के पुष्प गुच्छों द्वारा लतामण्डप ताराओं से विभूषित किये गये हैं। निरन्तर (अविच्छिन्न) जलस्राव के कारण प्रचुर जल-पूर्ण जल-कलशों के तलों की रेत की क्यारियों में उत्पन्न होरहे जी के अङ्करों द्वारा जहाँपर भित्ति-प्रदेश पीतवर्ग:-युक्त किये गए हैं। वसन्तदूती ( वृक्षविशप) के प्रफुल्लित पुष्प-समूह की सुगन्धि के सँघने में लुब्ध हुए भौरों द्वारा जहाँपर वीणावाजे का ध्यान आरंभ की गई है। जहाँपर मद से उत्कट हुए चकवा-चकयी, लावा पक्षी , कुररीपक्षी व फलहँस ( चतखें)-आदि अनेक जलपक्षियों के पंखों की चपस्ता : हिलाने ) से ऊपर उछलता हुई कमल-पराग-( पुष्पधूलि ) राशियों द्वारा जलकीडा-बावड़ियों पीली होगई है और उन बावलियों के मध्यवर्ती पुटिनों (जलास्थित द्वीपों) पर रचित प्रासादों ( गृहों) के मध्यवर्ती वेदियों के मध्यभाग पर जिसमें (फुब्बारों के गृह में ) जलशय्याएँ भलीप्रकार रची गई हैं। जहाँपर शय्या के समीपवती मण्डित (सजाये) हुए सुवर्णपात्र, मणिपात्र व रजत ( चौदी। पात्रों में धारण किये जारहे मलयागिर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी एवं कपूर की सुगन्धि के धारक (सुगंधित ) जलपूर वर्तमान हैं। जहाँपर प्रान्तभागवर्ती फुब्बारों की जलवृष्टि द्वारा स्थलकमलिनियों के जल से भरे हुए खेत सींचे जारहे हैं। जहाँपर नानाभाँति के व्यालों (कृत्रिम हाथी, सा, सिह व ध्यान-आदि जन्तुओं) के गुखों से प्रवाहित होनेवाली ( निकलती हुई ) जलधाराओं की ध्वनि के लय ( सशता) द्वारा महल के आँगन पर स्थित हुए मोर नचाये जारहे हैं। अर्थात्-फुधारों के गृह में वर्तमान कृत्रिम हाथी-चगरह के मुस्त्रों से प्रवाहित होनेवाली जलधारा की ध्वनि को मेघ-ध्वनि समझकर जहाँपर गृहाङ्गया के मोर नाँच रहे हैं। जहाँपर चन्द्रकान्तमणियों की कमल-नालों के छिद्रों से मारनेवाले झरनों द्वारा क्रीडाहँसों की हँसिनियाँ सन्तुष्ट की जारही है। कृत्रिम हाथियों की सैंडों द्वारा फैकीजानेवाली जलबिन्दुओं की वेग-पूर्ण वर्षा द्वारा जहाँपर खियों के केशपाशों पर मोतियों के आभरण रचे गये है। जहाँपर कृत्रिम मकर के मुखों से झरनेवाले भरने के जलबिन्दुओं द्वारा कामिनियों के
* मधुकसरवारम्ध' स्त्र. ग.। १. उक्तं च-गारदात्मज मरकाममगर्भ हरिन्मणि: । शोणरत्न लौतिक पदारागाऽथ मौक्तिकम ॥ १ ॥
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