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यशस्तिलक चम्पकाव्ये
नांगोरानी पत्री मनमानिनीकपोल तलतिलकपत्रं जलदेवतामुलकेलिकलाउलीनोन्मनारदी तलावावरत निविडंनोरम वाइविडम्यमानत्रलालिनी जघनं कृतकनाकानो कह स्कन्धा सीनसुरसुन्दरी हस्तोदरसोदकापायमानवसभावतंस किस शवास पत्रनकम्पको मरचामरानिलविरोद्यमानसुरत श्रान्तसीमन्तिनी मानसम् इतस्ततः पयोधरपुरंधिकास्तनकस्शविधीयमानमनावसरं दशैशिर्यमितिनीद्वारमहीधरम् ।
पिच हस्ते पृष्टा नखान्तैः कुतः यूयुरुप्रक्रमेण वक्त्रं नेवशन्तराभ्यां शिरसि कुवलयेनावतंसार्पितेन ।
यत्र
घोण्यां काचीगुणा पुनर्नाभिरप्रेण धीरा यन्ती यत्र चिलं विकिरति शिशिराश्चन्दनस्यन्दधाराः॥ ३७६ ॥ गृ, शिरीष कृमदादा नित कुन्तलकलापाभिः चिलिमुकुलपरिकपितद्वारयष्टिभिः पारमिमध्याभिः कर्णपरमरुको+सुन्दर मण्डलाभिः मृणाल्यालंकृत कलाची देशाभिः अमन्दचन्दनकुचकलशों का चन्द्रनाथा ( चन्दन का लेप ) उल्लासित ( आनन्दित - विशेष सुगन्धित ) किया जारहा है । जहाँपर कृत्रिम डालता वना में मनांत्रम बन्दरों के मुखों से उद्वान्त ( चमन किये हुए या गिरनेवाले ) जल भरनों द्वारा स्त्रियों के गालों की तिलकरचनाएँ प्रक्षालित की जारही हैं । जहाँपर ऐसी मरीचि आदि सप्तर्षि मण्डली द्वारा उद्गो विशेष जल-प्रवाह द्वारा स्त्रियों की जाएँ सन्तापित की जा रहीं है, जो कि जलदेवताओं की भयानक जलक्रीडा कलह के देखने से हर्षित हुए नारद के उत्ताल ताण्डव ( ब ) के दर्शनार्थ आई हुई थी । जहाँपर कृत्रिम कल्पवृक्षों के स्कन्धों ( तनों) पर आसीन देवियों के करकमलों से फेंके हुए जलों द्वारा विशेष प्यारी पत्नियों के कर्णपूरों की कोपलों के लिए जीवन दिया जारहा है । जहाँपर कृत्रिम चँवर धारिणी पुतलियों के चँबरों से उत्पन्न हुई उत्कट वायु द्वारा संभोग करने से खेद खिन्न हुई स्त्रियों के मन आश्चर्यपूर्वक श्रानन्दित किये जारहे हैं और जहाँपर यहाँ वहाँ कृत्रिम मंघ-पुतलियों के स्तन कलशों द्वारा स्नान अवसर किया जारहा है एवं जिसने ( फुव्वारों के गृह ने ) अपनी शीतलता द्वारा हिमालय पर्वत पर विजयश्री प्राप्त की है । अब प्रस्तुत फुब्बारों के गृह का पुनः विशेषरूप से निरूपण किया जाता है - जिस फुब्बारों के गृह की निर्मल कृत्रिम स्त्री आश्चर्य है कि इस्वभाग पर स्पर्श की हुई नस्त्रों के प्रान्तभागों से शीतल चन्दनस्पन्दधाराएँ से हुए सुगन्धि चन्दन की चरणशील हटाएँ ) फेंकती है। जब वह अपने कुच ( स्तन ) कलश के मूल भाग से स्पश का जाता है तब आश्चर्य है कि वह अपने चूचुकों (स्तनामों) के अवसर से चन्दनस्वन्दधाराएँ उत्क्षेपण करती हूं। अपने मुखभाग पर स्पर्श की हुई वह नेत्रों के मध्यभागों से विसे हुए चन्दन की चरणशील शीतल छटाएँ फेंकती हूँ । इसा प्रकार मस्तक पर स्पर्श की हुई वह कुबलय (चन्द्रविकासी कमल) के कर्णपूरों से शीतल चन्दनस्यन्दधाराएँ उत्पण करती हूं एवं अपनी कमर भाग पर स्पर्श की हुई वह करधोनी संबंधी डोरों के प्रान्तभागों से चन्दन का सुगान्धन क्षरणशील शीतल-स्टाएँ फेंकी है तथा अपनी त्रिवलियों (रेखाओं पर स्पर्श का हुए वह नाभि-छिद्र से चन्दन की क्षरणशील शीतल बटाएँ फेंकती है ||३७६||
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ई मारिदत्त महाराज ! उक्तप्रकार के फुव्वारों के गृह में मैंने कैसा पालयों के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रीष्म ऋतु की मध्याह्नबेलाएँ व्यतीत की ?
जिन्होंने अपने केशपाश शिरीष (सिरस ) वृक्ष की पुष्पमालाओं से गूंधे हैं । जो मोगरक पुष्पकलियों से गँधे हुए छारों से विभूषित है। जिन्होंने अपने बँधे हुए केशपाश का मध्यभाग वसन्तदूती ( पारुल - वृक्ष विशेष ) के पुष्पों से सुगन्धित किया है। जिनके गालों के समूह कर्णपूरों ( कानों के आभूषणों को प्राप्त हुए मरुवकों (पत्तां व पुष्पविदायों) की मरियों से मनोज्ञ प्रतीत होरहे हैं । जिन प्रकोष्ठभाग कुन के नांचे का भाग ) कमलनालों के कारणों से अलकृत हैं। जिनके स्तनतट
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* ''६० । + सुन्दरमण्डलमण्डलाभिः क १. दीपक व समुच्चयालंकार ।