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सृतीय आवासः स्थन्ददुर्दिनस्तनसटाभिः निविउजालनीसामाजिष्टदृष्टिभिः वल्लभलोकदस्तयन्त्रोदस्सजलजडांशुकन्यक्त निनोन्नतप्रदेशाभिः अमर्यादालापविलासबासोलासाभिरामामिः प्रियतमाभिः सह संक्रीउमानः
विवशयिसिनीकन्दच्छेदैर्मृणालविभूषणै मलयजरसस्यन्दारिशोकरलांच्चयैः। पुतिडवयरोसारस्सनैश्च विलासिनां समधिकरतिर्जातः कामं निदायसमागमः ॥३७॥ भास्वदास्वति दाइचाहिमरुति ज्यालोरमणाशाकृतिxशुष्यभृति दीप्यमानवियति प्रेसम्मुखाम्भोयुसि | संशुण्यरसरिति क्वथ तनुमति स्वान्तोद्धाहति मोमेस्मिन् मति क्षयामयधिति प्राजन्मृति गछति ॥३७॥ कृतकिसलयशय्याः प्रान्तनप्रतानाः स्तबकरचितकुक्यास्तत्प्रसूनोपहाराः । जामसरणिसमीरासारसाराः प्रियाणां कुचकसशविलासैनिर्विशोयानभूमीः ॥३९॥ विकविकिलालीकीर्णलोलालकानां कुरमकमुकलत्रक्तारहारस्तनीनाम् ।
बदलाप्रैः पल्लवैश्चतजातैनूप किमपि पायं योषितां चुम्य प्रस्नम् ॥३८॥ प्रचुरतर घिसे हुए तरल चन्दन से लिया है। विशेष जलकीड़ा करने के फलस्वरूप जिनकी दृष्टियों पाटल (रक्त ) होगई हैं। जिनके शारीरिक नीचे-ऊँचे स्थान ( जना व स्तनादि स्थान ) पतियों के हाथों पर स्थित हुई पिचकारी के जल से गीले हुए वस्त्रों में से प्रकट दिखाई देरहे हैं और जो वेमर्याद परस्परभाषणों, विलासों ( मधुर चितवनों) और वेमर्याद हास्यों की उत्पसियों से अत्यन्त मनोहर हैं।
प्रसङ्ग–अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! स्तुतिपाठकों के कैसे स्तुतिवचनों द्वारा उल्लासित मनवाले मैंने प्रीष्मऋतु की मध्याह्नवेलाएँ व्यतीत की ?
हे राजन् ! प्रीष्म ऋतु का समागम कामी पुरुषों के लिए [निम्नप्रकार शीतल प कामोद्दीपक निमित्तो से ] यथेष्ट सम्यक् प्रकार से अत्यन्त रागजनक हुआ। उदाहरणार्थ-विधश ( अपने को कायू में न रखनेवाले ) पमिनियों के मूलखंहों द्वारा, नीलकमलों के आभूषणों द्वारा और अशोकवृक्ष के पल्लयों की शय्याओं द्वाप, जो कि तरल चन्दनरस के क्षरण ( टपकने ) से व्याप्त हुए जल-भीगे वनों से गौली थी एवं युवती स्त्रियों के ऐसे वक्षः स्थलों के आलिङ्गनों द्वारा, जो कि हारों ( मातियों की मालाओं) से विशेष उज्वल स्तनों से सुशोभित थे ॥३७॥ ऐसी ग्रीष्म ऋतु ( ज्येष्ठ व आषाढ़) में अन्य देश को गमन करता हुआ मानव [ अत्यन्त गर्मी के कारण ] मर जाता है, जिसमें श्रीसूर्य तेजस्वी है और संतापकारक वायु वह रही है। जो दिशाओं को अपि-ज्वालाओं सरीखा तीव्र कर देता है। जिसमें पर्वत और आकाश विशेषरूप से जल रहे हैं। जिसमें मुख पर स्वेदजल की कान्ति संचार कर रही है। जिसमें नादयाँ भले प्रकार सूख रही हैं और समस्त प्राणी गर्मी के कारण उचल रहे हैं-संतप्त होरहे हैं। जो कामदेव का शक्ति नष्ट करती है। अर्थात--प्रीष्म ऋतु में कामशक्ति ( मैथुन-योग्यता) नहीं होता। जा गुरुवर तथा क्षयरोग को पुष्ट करती है। ॥ ३७८ ।। हे राजन् ! आप प्यारी स्त्रियों के कुच (स्तन ) कलशों क आलिङ्गनपूर्वक ऐसी उद्यानभूमियों का अनुभव कीजिए, जहाँपर वृम्भ-पल्लवों की शय्याएँ रची गई हैं। जिनके प्रान्तभागों पर आम्र वृक्ष समूह पाये जाते हैं। जिनको भित्तियाँ फूलों के गुच्छों से निर्माण कागई हैं। जिनमें बगीचा के फूलों के उपहार (ढेर ) है और जो कृत्रिम नदियों के बासु-मण्डलों से मनोहर है।। ३७६ ।। हे राजन् ! आप ऐसी स्त्रियों के, जिनके चश्नल कंश प्रफुल्लित मोगरक-पुष्पों की श्रेणियों से व्याप्त हैं और जिनके कुच (स्तन) कलश कुरखक ( लालझिण्डी) को पुष्प-कलियों की मालाओं तथा उज्वल हारों (मोतियों की मालाओं) से विभूषित होरहे हैं, कुछ कठिन अप्रभागवाले भान पल्लवों से अपूर्व
x 'लुष्यभूति' काव- । १. समुल्लम व दीपकालंकार । १. जाति-भलंकार । ३. समुस्नयालंकार ।