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यशस्तिकचम्चन्ये तस्विमिति समस्सलामतियगृहमनःप्रभावं बापुजीवम् ; महाकविसंमहान्महीपतीनामाबन्दाकोपकाशं पश इति । नस्किमिति स भवत्कोतिलतालालनालापामृत सेवकसारं हारम् , 'यासु सन्सो न तिष्ठन्ति ता वन विभुसयः' इसि, तस्विमिति स्वभावाव देवस्य प्रसेपाऽपरानपि विदुषः + पुरुषानमिषनगारान्तरापतितः कपोत इस निस्यि स्वपमेकै वय वर्तते। तथा इति विधिनस्य निवसतां च सतामरंदवाक्प्रसास्वचिसारहीर इव न हाति सुखेनासितम् ।
अभ्या पली न हरितारपारमारा दृष्टरुपैति विषय विषमावरुद्धः ।
यूथच्युतोपि बरकरकशान्ताग्यणः प्रयत्पवश एव मरुस्थलानि ।। २३ ।। देश से निकालकर क्यों स्वयं ही अद्वितीय प्रभुत्व में स्थित हो रहा है ? जिसने अपने चित्त के माहात्म्य में समस्त गज-शास्त्र ग्रहण कर लिए है-जान लिए हैं। अर्थात्-जो समस्त गजशास्त्रों का पूर्ण वेत्ता है। हे देव ! महाकवियों के संग्रह (स्वीकार) से राजाओं का यावचन्द्रदिवाकरौ' अर्थात-जब तक सूर्य व चन्द्र विद्यमान है तब तक ( चिरकाल तक ! भूमण्डल पर यश स्थित रहता है यदि यह निश्चित है तो मापका मन्त्री ऐसे 'हार' नामके महाकवि को देश से निकालकर क्यों अद्वितीय प्रभुत्व में अधिष्टित हो रहा है ? जो कि आपकी कीर्तिरूपी लता के कोमल काव्यरूप अमृत के सेवन से विशेष शक्तिशाली है। इसीप्रकार हे राजन | 'जिन धनादि सम्पत्तियों द्वारा विद्वान् लोग सम्मानित नहीं किये जाते, वे (धनादि सम्पत्तियाँ) निरर्थक ही है, यदि यह बात निश्चित है तो आपका मन्त्री स्वभाव से ही आपके ऊपर प्रसन्न रहनेवाले ( आपके सेवक ) दूसरे विद्वानों को देश से निकालकर क्यों असाधारण ऐश्वर्य में स्थित हो रहा है? भावार्थ-'शतक' नामके गुप्तचर ने यशोधर महाराज से कहा कि हे राजन् ! आपके 'पामसेदार' नामके मन्त्री ने ऊपर कहे हुए अधिकारियों को देश से निकाल दिया हैं और वह अद्वितीय ऐश्वर्य भोग रहा है, इससे यह बात स्पष्ट प्रमाणित होती है कि वह आपके ऊपर कुपित हो रहा है और आपसे ईया कर रहा है। राजन् ! उसीप्रकार से निम्न प्रकार विचार कर ऐसा यह मन्त्री, जिसकी वचन-प्रवृत्ति प्रापके देशवासी सजनों को उसप्रकार मर्मव्यधक है जिसप्रकार वंशशलाका ( बाँस की सलाई - फाँस) नख आदि स्थानों में घुसी हुई मर्भव्यधक : हृदय को पीड़ाजनक होती है और वह उन विद्वान् सजनों को उसप्रकार सुखपूर्वक ठहरने नहीं देता जिसप्रकार वंशशलाका नखादि स्थानों में घुसी हुई सुखपूर्वक नहीं रहने देती।
हे राजन् ! नीचे-ऊँचे ( ऊबड़-खाबड़) मार्ग द्वारा रोका गया और अपने झुण्ड से विछुड़ा हुआ भी हिरण जब दूध के अङ्करों पर संचार करने से मनोहर ( सुखद ) दूसरी स्थली (भूमि) दृष्टिगोचर नहीं करता नव पराधीन होकर के ही ऐसे मरुस्थलों ( मारवाद देश के बालुका मय स्थानों ) का आश्रय करता है, जिनके पर्यन्तभाग अथवा स्वभाव कठिन बालुका (रेतों) से कठोर है। भावार्थ-प्रकरण में 'शङ्कनके नाम का गुप्तचर उक्त मन्त्री की कटु आलोचना करता हुआ यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन ! जब हिरण अपने झुण्ड से बिछुड़ा हुआ ऊवव-खाबड़ भूमि के कारण रुककर दूर के अंकुरों से व्याप्त सुख देनेवाली पृथ्वी पर जाने से असमर्थ हो जाता है तब पराधीन होकर ही कठिन रेतवाले मरुस्थलों का आश्रय करता है उसीप्रकार हे राजन् ! उक्त 'पामरोदार मन्त्री द्वारा सताये गए और आपका आश्रय न पाकर विद्वानों से पिछुड़े हुए उक्त सजन विद्वान् पुरुष पराधीन होने से ही दूसरे देशों को प्रस्थान कर रहे हैं। ॥२३॥
x 'पुरुषानमिपमगारान्तरपतितः क. 'पुरुषानमर्पश्चगारान्तरापतितः घः । 1. समासोक्ति अलंकार।