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द्वितीय आवास:
कर्मासवानुभवमात्पुरुषः परोऽपि प्राप्नोति पातमशुभालु भषावनीषु ।
तस्मातयोः परमभेदविदो विधाः श्रेयस्वदादधतु यत्र न जन्मयोगः ॥ १२६ ॥ इति पृथक्स्वानुप्रेक्षा ॥ ५॥
कराकर - सन्तापित (क्लेशित ) करती हैं, जो ( आत्मा ), अनन्त सुखशाली व अविनश्वर है । अर्थात्जो शस्त्रादि द्वारा काटा नहीं जासकता और अभि द्वारा जलाया नहीं जासकता एवं वायु द्वारा सुखाया नहीं जासकता तथा जलप्रवाद्दद्वारा गीला नहीं किया जासकता इत्यादि किसी भी कारण से जो नष्ट नहीं होता । इसीप्रकार जो अनादि है । अर्थात् मौजूद होते हुए भी जिसको उत्पन्न करनेवाली कारण सामग्री नहीं है। अभिप्राय यह है कि जिसकी घटपटादि पदार्थों की तरह उत्पत्ति नहीं होती किन्तु जो आकाश की तरह अनादि है। इसी प्रकार जो अनन्त शक्तिशाली है । अर्थात् जो केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा अनन्त वस्तुओं के स्वरूप का ग्राहक होने के कारण अनन्तसामर्थ्य-शाली है एवं जो लोक व भलोक के स्वरूप का प्रकाशक है तथा स्वभाव-- निश्चय नयको अपेक्षा से कर्ममल-कल से रहित शुद्ध है ।।१२५|| यह आत्मा शास्त्रवेता व सदाचारी ब्राह्मण विद्वान सरीखा उत्कृष्ट ( पवित्र ) होनेपर भी कर्मरूप मद्यपान के फलस्वरूप चाण्डाल आदि की अपवित्र पर्यायरूप पृथिवियों में पतन प्राप्त करता है। अर्थात्अशुभ पर्यायें धारण करता है, इसलिए निश्र्चय से शरीर और आत्मा का अत्यन्त भेव जाननेवाले व देव ( छोड़ने योग्य) और उपादेय (पण करने योग्य) वस्तु के ज्ञानशाली विवेकी पुरुषों को ऐसे किसी श्रेयस्कारक ( कल्याणकारक ) कर्तव्य ( जैनेश्वरी वीक्षाधारण द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र रूप राय की प्राप्ति) का पालन करना चाहिए, जिससे इस आत्मा का संसार से संबंध न होने पावे । अर्थात्-जिन सत्य, शिव और सुन्दर कर्त्तव्यों के अनुष्ठान से यह सांसारिक समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर मुक्तिश्री प्राप्त कर सके । भावार्थ - वादिराज महाकवि ने भी कहा है कि "कर्म द्वारा कवलित ( लाई जाना-ब होना) किये जाने के कारण ही इस आत्मा को अनेक शुभ-अशुभ पर्यायों में जन्मधारण का कष्ट होता है, इसलिए यह जीव पापकर्म से प्रेरित हुआ चाण्डाल के मार्ग रूप पर्याय में उत्पन्न होता है। अतः कर्मरूप मादक कोदों के भक्षण से मश-मूर्च्छित हुआ यह जीव कौन-कौन से अशुभ स्थान ( खोटे जम्म ) धारण नहीं करता ? सभी धारण करता है ।"
शास्त्रकारों" ने कहा है कि "अब जिसप्रकार दूध और पानी एकत्र संयुक्त होते हुए भी भिन्न भिन होते हैं उसीप्रकार शरीर और आत्मा एकत्र संयुक्त होते हुए भी भिन्न २ हैं तब प्रत्यक्ष भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले श्री पुत्रादिक तो निस्सन्देह इस आत्मा से भिन्न है ही" अतः विवेकी पुरुष को शरीरादिक से मित्र आत्म य का चिंतन करते हुए मोक्षमार्ग में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। १२६ ।। इति पृथक्त्वानुप्रेक्षा ||५||
१ तथा चोक गीतोपनिषद
नैनं छिन्दन्ति चत्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥
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२. रूपक व उपमालङ्कार ।
३. तथा च वादिराजो महाकविः --
कर्मणा कमलिता जनिता जातः पुरान्तरजन मवाडे । कर्मकोश्वरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ॥१॥
४. तथाच श्रुतसागर सूरिः
क्षीरनीरवनेत्रस्थितयो देहिनः। भेदो यदि ततोऽन्यत्र लनादिषु का कथा ॥१३॥
५. पफालङ्कार ।