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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये माधीपये बक्षि वस्तु गुणाय कासं काये तदेष मुहुरेत्यपवित्रभावम् । पारावारितमतिर्मयरमनवम्ब विवीध खालयसि भरमेताम् ॥ ११॥ योपिजिरारतकरं कृतमयाननीयः कामयामरविस्तव केशपाः। सोऽयं स्वयि प्रवणगोरखा प्रपाते प्रेतावनीषु वनवायसवासगोऽभूत् ॥ १८ ॥ अन्तहिदि मवपुषः शरीरं दैवात्तदानुभवन ननु एएमास्ताम् । कौदहवादपि यदीक्षितुमुत्सदेत पुर्याचदाभिरसिमत्र मवाश्यारीरे ॥ १९॥ वस्मानिसर्गमलिनापि सन्धतवाः कीनाशकेलिमनवासधियोधिराय । फायादतः किमपि तत्फलमर्जवन्तु यस्मादनन्तसुखप्तस्यविभूतिरेषा ॥ १३॥ इत्याधुचिस्यानुप्रेक्षा ॥६॥ अन्तः कषायकलुषोशुभयोगसमास्कमप्युपार्जयसि बग्धनिबन्धनानि । रम्यः करेणुवरागः करटी यथैवास्वं जीव मुत्र सदिमानि दुरीहितानि ॥ ११ ॥
बथ अशुधि-अनुपेक्षा-हे आत्मन् ! इस शरीर को सुगन्धित करने के उद्देश्य से इस पर जो भी । कपूर, अगुरु, चन्दन व पुष्प-वगैरह अत्यन्त सुन्दर व सुगन्धि वस्तु स्थापित कीजाती है, वही वस्तु इसके संबंध से अत्यन्त अपवित्र होजाती है, इसलिए गौर व श्याम-आदि शारीरिक वर्णों से ठगाई गई है बुद्धि जिसकी ऐसा त विष्ठा-छिद्रों के बंधानरूप और स्वभाव से नष्ट होनेवाले ऐसे शरीर को किस प्रयोजन से पार पार पुष्ट करता है? ॥१२॥ हे पात्मन् ! जो तेरा ऐसा केशपाश (बालों का समूह), जिसको कान्ति (छवि) कामदेष रूप राजा के चमर-सरीखी श्यामवर्ण थी और जो जीवित अवस्था में कमल-सरीखे कोमल करोंवाली कमनीय ममिनियों धारा चमेली व गुलाब-श्रादि सुगन्धि पुष्पों के सुगन्धित तेल-आदि से तेरा सन्मान करनेवाले कोमल करकमलों पूर्वक विभूषित किया जाने के फलस्वरूप शोभायमान होरहा था, वही केशपाश तेरे कामसवलित (मृत्यु का पास) होजाने पर श्मशान-भूमियों पर पर्वस-संबंधी कृष्ण काको के गले में प्राप्त होनेवाला हा।॥२८॥ हे जीव ! दैवयोग से यदि तेय भीतरी शरीर (डी व मांसाथि) इस शरीर से बाहिर निकल पाये तो उसके अनुभव करने की बात तो दूर रहे, परन्तु यदि तू केवल कौतूहल मात्र से उसे देखने का उत्साह करने लगे तब कहीं तुझे इस शरीर में सम्मुख होकर राग-बुद्धि करनी चाहिए, अन्यथा नहीं' ।।१२६)। इसलिए हेय ( छोड़ने योग्य ) व उपादेय ( ग्रहण करने लायक) के विवेक से विभूषित तत्वज्ञानी पुरुष, यमराज की क्रीड़ा करने की ओर अपनी बुद्धि को प्राप्त न करते हुए ( मृत्यु होने के पहिले ) स्वाभाविक मसिन इस शरीर से कोई ऐसा अनिर्वचनीय (जिसका माहात्म्य वचनों से अगोचर है) मोक्षफल प्राप्त करें, जिससे वह अनन्तसुख रूप फल की विभूति ( ऐश्वर्य ) उत्पन्न होती है।
भावार्थ-श्रीगुणवाचार्य ने भी इस मनुष्य-वेह को धुण द्वारा भक्षण किये गए साँठ-सरीखी निस्सार, भापतिरूपी गाठों वाली, अन्त (बृद्धावस्था व पक्षान्सर में श्रम-भाग) में विरस (कष्ट-प्रद व पलान्तर में बेस्वाद) इत्यादि बताते हुए शीघ्र परलोक में श्रेयस्कर कर्तव्य-पालन द्वारा सार ( सफल ) । करने व उपदेश दिया है ॥१३०॥ इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा ॥६
१. जाति-अलंबार। २. उपमालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. सबा गुमभद्राचार्य :
'व्यापत्पर्वममं विरामनिरस मूलेऽप्यमाग्योचितं विश्वक् अक्षतपातकुकृषितायुप्रामवैश्छिवितम् ।
मानुष्यं धुणभक्षितेचसही नामैकाम्मे वरं निःसारं परलोकवीजमचिरात् फलेह सारोकुर' ५. सकालंधर।