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________________ १४६ द्वितीय पाश्चासः संकल्पकल्पतरसश्रयणाचवी घेतो निमवति मनोरथसागरेऽस्मिन् । सत्रार्थतस्तक पकास्ति न किंचनापि पक्षे परं भवसि कल्मषसंश्रयस्थ ॥ १३ ॥ सेपर्व विभूतिषु मनीणि गाणां चहानामा निजानि भोगराउन । पापागमाय परमेव भवेशिभूठ कामारकुतः पुमदूरवता हितानि ॥ १३३ ॥ पौर्विध्यपश्मिनसोऽन्तरुपात्तभुक्तश्चितं यथोडससि ते स्फुरितोत्तरङ्गम् । धाम्नि स्फुरैयदि तथा परमात्मसंज्ञे कौतस्कृती सब भटिफशा प्रसूतिः ॥ १३४ ॥ हस्यान्नशानुप्रेक्षा ॥५॥ मागच्छतोऽभिनयकामगरेणुशदोर्जीवः करोति यदवस्खलन वितन्नः । स्वतस्वचामरधरैः प्रणिधामहस्तैः सन्तो विदुस्तमिह संघरमात्मनीनम् ॥ १३५ ॥ अथ पासवानुप्रेक्षा-हे आत्मन् ! तुम मन में स्थित हुए क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों से कलुषित (मलिन) हुए अशुभ मन, वचन, व काययोग का आश्रय रूप कारण-वश ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मों को, जो कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बन्ध के कारण हैं। अर्थात् - अशुभ योगरूप कारण से पाए हुए कर्म-समूह प्रकृति व प्रदेशबन्ध उत्पन्न करते हैं और फंपायरूप कारण से गृहीत कर्म-समूह स्थिति व अनुभाग बन्ध उत्पन्न करते हैं, उसप्रकार स्वीकार करते हो जिसप्रकार हथिनी में लम्पट हुश्रा हाथी राजमहल में दृष्टिगोचर होनेवाले वन्धन स्वीकार करता है। अतः हे जीव ! तुम ये खोटे अभिप्राय (अशुभ योग ष कषाय भाव) छोड़ो' ।।१३११॥ हे आत्मम् ! मानसिक संकल्परूप कल्पवृक्ष का आश्रय करने के फलस्वरूप तेरी विकृत चित्तवृति, इस मनोरथ-रूप समुद्र में डूबदी है। उससे (संकल्प रूप कल्पवृक्ष का आश्चय करने से) वास्तव में सुमे कुछ भी इष्ट-वस्तु का अनुभव नहीं होता और इसके विपरीत तुम केवल पाप का श्राश्रय (पापबंध) स्वीकार करनेवाले होजाते हो। भाषार्थ-शासाकारों ने कहा है कि हे आस्मन् ! दूसरे की कमनीय कामिनी देखकर हषय में राग मत करो, क्योंकि ऐसा करने से पाप से लिप्त हो जाओगे। तुम तो शुद्ध-बुद्ध हो अवः पाप पेष्टा मत करो ॥१३॥ आत्मन् ! निरर्थक इच्छा करनेवाली तेरी ऐसी विकृत मनोवृत्ति, जो केवल बाह्य इष्ट वस्तुएँ माप्त करने की आकांक्षाओं में ही प्रवृत्त होती है और स्वर्गादि के सुख देनेवाली वस्तुओं (देवताओं आदि) के ऐश्वयों से ईर्ष्या (द्वेष) करती है, अतः हे विवेकहीन आत्मन् ! ऐसा करने से यह तेरी विकत मनोवृत्ति निश्चित रूप से पापोपार्जन ( पापबंध) ही करती रहती है। क्योंकि पुण्य-दीन पुरुषों को केवल इच्छामात्र से किसप्रकार सुख प्राप्त होसकते हैं? कदापि नहीं होसकते ॥ १३३ ।। हेमास्मन् ! निर्धनता (परिवता)से भस्मीभूत मनपाले तेरा ऐसा मन, जिसमें उत्कट मनोरथ खत्तम हुए हैं, जिसप्रकार संकल्पमात्र से वाप्य पदार्थों में उनसे भोग ग्रहण करने के उद्देश्य से प्रवृस होरहा है, उसीप्रकार यदि अन्तस्तत्व नामवाले तेजपदार्थ (मोक्ष-मार्ग) में प्रवृत्त होजावे तब तो तेरी मनुष्य पर्याय में । उत्पत्ति किसप्रकार निष्फल हो सकती है? अपितु नहीं होसकती ॥ १३४॥ इति पासवानुप्रेक्षा जा 'य संघपनुप्रेक्षा--यह आत्मा अमाव-( कषाय) रहित होता हुमा जम आत्मतत्स्वरूपी मर धारण जानेवाले शुमभ्यान (धर्मभ्यानादि) रूपी फरकमनों धाय मषिष्य में आनेवाले नवीन कर्मों का पुतला परमाणु-पुष ऐकवा है उसे सत्पुरुष संसार में मात्मा का कल्याणकारक 'संवरतस्य' कहते हैं ॥१३॥ 1. अपमालंकार। २. तथा चौफ-'ठूण परमजतं राग मा वहसि चियम मजम्मि। पावेण पाच लिप्पसि पा मा बहसि त्वं पशुदो दि ।। सं. टी. पू. १६८से संकलित-सम्पादक रूमकालंकार। .. लाक्षेपालंकार : ५. माशेपालंकार । १. रूपकालंधर।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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