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________________ ३०६ यशस्तिलकचम्पूफाल्ये आत्मा स्वभाषशुद्धः काय: पुनरशुचिरप ध निसर्गात् । प्रायश्चित विधानं कस्यति विचिस्यता अगति ।। २३४ ॥ वर्णाश्रमजासिलस्थितिरेपा व संवृतेनाम्या । परमार्थतच मृपते को विप्रः कश्च चाकालः ॥२३॥ नास्तिकता चास्य किमिवोच्यते । यः खलु विकीय देवं विदधाति यात्रा तगासनादेव पर देवान् । प्रमुख्य लोक ठकवृतिभावदाति दाम द्विजपुंगवेभ्यः ॥२३६॥ मप्रहारमहः साक्षादेव भोगभुजंगमः । शिष्टविष्ट पसंहारप्रसयानलमानसः ॥ २३७ ।। कृतान्न इष चेष्टेत यो देवेषु निरङ्कुशः । कापेक्षा भक्षणे तस्य तापसेषु द्विजेषु च ।। २३८ ।। देव, यावद्धवान्न जातोऽन तावदन्ये कुलोरताः । जातं त्वयि महीपाल नृपाः सपि निषकुलाः ॥ २३९ ॥ इति देव, देवमुपश्लोकयता ककारमतत्वमास्मनो न घोसितम् । यतो देष, देवोत्पादागतां वंशविशुद्धता स्थित हुआ दूषित नहीं हूँ ॥२३३।। यह आत्मा ( जीयतत्त्व ) स्वभाव से ही शुद्ध ( कर्ममल कला से रहित ) है और यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला शरीर स्वभाव से अपवित्र है, इसलिए संसार में प्रायश्चित्त (पाप शुद्धि) का विधान किसके लिए है ? अपि तु किसी के लिये नहीं, यह बात आपको सोचनी चाहिए ॥२३४|| हे राजन् . वर्ग माझा गि, गद्र ने क र्ण), पाश्रम ( ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ घ थति ये चार आश्रम ), जाति ( मातृपक्ष) और कुल ( पितृपक्ष) इनकी मर्यादा व्यवहार-दृष्टि से मानी गई है न कि निश्चयदृष्टि से, इसलिए निश्चयदृष्टि से कौन ब्राह्मण है? और कौन चाण्डाल है ? अपि तु कोई नहीं ॥२३शा हे राजन् ! आपके इस मन्त्री की नास्तिकता के बारे में क्या कहा जाए ? जो मन्त्री देव-मूर्ति बैंचकर यात्रा करता है और बड़ी देव प्रतिमा को गलवाकर दूसरी छोटी देष-मृतियाँ बनाता है एवं उगवृत्तियों (औषध आदि के प्रयोगों)-द्वारा मनुष्यों का गला घोंटकर उनसे धन प्रहण करके श्रेष्ट ब्राह्मणों के लिए दान दे देता है ।।२३६।। हे स्वामिन् ! आपका यह मंत्री प्रत्यक्षरूप से अग्रहारग्रह है। अर्थान-विप्र-आदि के लिए दिये हुए ग्रास को ग्रहण करने के हेतु पिशाच-सरीस्था है और देवपूजा के लिए आपके द्वारा दिये हुए ग्राम, क्षेत्र व कूप-आदि भोगों में लम्पट है अथवा मक्षक है एवं जिसका मन शिष्ट पुरुषों का संसार नष्ट करने के लिए प्रलयकाल की अपि-सरीखा है ॥२३७॥ हे राजन् ! जो आपका मन्त्री देवभूतियों में वेमर्याद प्रवृत्ति करता हुआ ( गलवाता हुना) यमराज के समान चेष्टा करता है ( उन्हें बैंचकर वाजाता है) इसलिए उसको साधुजनों व ब्राह्मणों के भक्षण करने में ( राजदत्त क्षेत्र-आदि भोगाभक्षण करने में किसकी अपेक्षा होगी? अपि तु किसी की नहीं |॥२३॥राजन् ! जो मन्त्री आपकी इसप्रकार स्तुति करता है- 'हे राजन् ! जब तक आप इस. कुल में उत्पन्न नहीं हुए तब तक दूसरे यशोवन्धुर व यशोर्घ-श्रावि आपके पूर्वज राजा लोग कुलीन हुए और आपके उत्पन्न होने पर आपके यंश में उत्पन्न हुए समस्त राजा लोग कुल-हीन होगम् ॥२३।। हे स्यामिन ! उक्त श्लोक द्वारा आपकी स्तुति करनेवाले आपके मन्त्री ने फिसप्रकार से अपनी एकान्तता ( 'मैं ही राज्य का सर्वस्य हूँ इसप्रकार अद्वितीय प्रभुत्व ) प्रकाशित नहीं की ? अपितु अवश्य की। इसीप्रकार हे राजन! इस मन्त्री ने जन आपके जन्म से उत्पन्न होनेवाली कुलविशुद्धि का निरूपण किया तष इससे यह समझना चाहिए कि इसने आपके वंश की अशुद्धि १. समुच्चयालकार। २. जाति व आक्षेपालबार । ३. आक्षेपालंकार । ___ * "विप्रादीना दतं प्रासः तस्य' प्रह: पिशाच टिप्पणी ग । ४. पारवृत्ति-अलंकार । ५. रुपकालंकार । ६. उपमा व आक्षेपालार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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