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तृतीय आश्वासः बदतानेन साधु देवान्वयस्यात्रिशुद्धता प्रकाशिता । म बलु पुत्रास्पियोः कुलीनता, किंतु पितृभ्यां पुत्रस्य । सदेवं देव, देवस्यायमेव नितरां पक्षपाती। देव, देवस्पायमेव राज पालक्ष्मीवलीवर्धनः । देव, घेवस्वायमेष मशरूपरम्परासंपावनः । देव, देवस्यायमेव प्रतापप्रदीपनन्दनः । देव, देवस्यायमेव समरेर जअधिभूतिकारणम् । देव, देवस्यायमेव शन्धवेषु हारावरुद्धकण्ठताहेतुः । देव, देवस्थायमेव मित्रेषु श्रीफलोपलालनास्तनम् । देव, देवस्यायमेधाश्रितेषु चिन्तामणिमिदानम् । अत एवं
वृत्तिपश्वविवश विदुषः कोहलस्यार्थहानिमामग्लानिर्गणपतिकवेः शंकरस्याशु भाषाः ।
धर्मध्वंस: कुकृतिनः फेकटेश्च प्रवास: पापावरमादिति समभवदेव देवे प्रसिद्धिः ॥ १०॥ प्रकट की, क्योंकि पुत्र की कुलीनता से उसके माता-पिता में कुलीनता नहीं आती किन्तु माता पिता की कुलीनता से ही उनके पुत्र में कुलीनता प्रकट होती है। इसलिए ऐसा होनेपर हे राजन् ! यह मन्त्री ही आपका विशेषरूप से पक्षपाती है। अर्थात्-आपके वंश को विशेषरूप से नष्ट करनेवाला है, न कि आपके पक्ष का अवलम्बन करनेवाला। हे गजन् ! श्रापका यह मंत्री राज्यलक्ष्मीवालीवर्धन है। अर्थात्राज्यसंपत्तिरूपी लता का वन (छेदनेवाला ) है, न कि वृद्धिंगत करनेवाला। इसीप्रकार हे स्वामिन् ! आपका यह मन्त्री मङ्गल-परम्परा-संपादन है। अर्थात्-धड़े को भेदन करनेवाले ठोकरों की लेणी (समूह) को करनेवाला है, न कि कल्याणश्रेणी की सृष्टि करनेवाला । हे राजन् ! आपका यह मन्त्री प्रताप-प्रदीप-नन्दन है। अर्थात-आपके प्रतापरूपी दीपक का नन्दन ( विध्यापक-बुझानेवाला ) है, न कि प्रबोधक-उद्दीपित करनेवाला।से राजन ! भाएका यह मन्ही गुजभूमि में जय-विभूति-कारण है। अर्थात्-विजयश्री के भस्म करने का कारण है-शत्रुओं से पराजित होने में कारण है न कि विजयश्री व ऐश्वर्य का कारण । हे स्वामिन् ! आपका यह मन्त्री कुटुम्बीजनों में क्षरावरुद्ध-कण्ठताहेतु है। अर्थात्-ईटों के ढेर के ग्रहण द्वारा विलाप रोकनेवाला है। अभिप्राय यह है-जो युद्ध में शत्रु द्वारा मारे हुए. योद्धाओं की विधवा स्त्रियों आदि के विलाप को इंटों व स्वप्पड़ों के मार देने का भय दिखाकर रोकनेवाला है, अथवा जो हा-बाराव-रुद्धकएठताहेतु है। हा हा इस धाराव ( पाकन्द-रुदन ) शब्द द्वारा रेघे हुए कण्ठ का कारण है। अभिप्राय यह है कि इसके दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप राजा ष अधिकारियों के हृदय में 'हाय-हाय' ऐसा करुण रखन-शब्द होता है, जिससे कि उनका कण्ठ सैंध जाता है, न कि हार-मोतियों की मालाओं के कण्ठाभरण का कारण है। इसीप्रकार हे स्वामिन् ! आपका पह मन्त्री मित्रों के शिरों पर श्रीफल-उपल-पालन-पायतन-है। अर्थात् - मित्रों के शिर पर विरुवफल पाँधने और पत्थरों द्वारा साइन करने का स्थान है न कि लक्ष्मीरूप फल के विस्तार का स्थान है एवं हे राजन् ! यह आपका मन्त्री नौकरों में चिन्तामणिनिदान है। अर्थात् आर्तध्यान के कथन का कारण है। अभिप्राय यह है कि यह नौकरों के लिए पर्याप्त वेतन नहीं देता, इसलिए उनकी चिन्ता-आध्यान-को बढ़ाता है न कि शोणरत्न का कारण है।
इसलिए हे स्वामिन् ! इस पापी मन्त्री से देश में ऐसी प्रसिद्धि होरही है, कि इसने 'चिदश' नामके कषि की जीविका का उच्छेद ( नाश ) किया, 'कोइल' कयि को निर्धन किया, इसीके द्वारा 'गणपति' नामके कयि का मानभा हुआ, 'शंकर, नामके विवान् का शीघ्र नाश हुआ और कुमुदकृति' नामके विद्वान् का धर्म नष्ट हुआ एवं ककदि' नामके महाकषि का परवेश-गमन हुआ' ॥२४॥
१, समुच्चयालंकार ।