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ग्रन्थकर्ता का समय और स्थान -- ' यशस्तिलकचम्पू" के अन्त में लिखा है कि चैत्रशुक्ल १३ शक सं० [१] (विक्रम संवत् १०१६) को, जिस समय श्री कृष्णराजदेव पाण्ड्य, सिंहल, चोल व चेरम-प्रभृति राजाओं को जीतकर मेलपाटी नामक सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त 'वहिग' को (जो चालुक्यवंशीय अरिकेसरी के प्रथम पुत्र थे) राजधानी गंगाधारा में यह काव्य समाप्त हुआ और 'नीतिवाक्यामृत' यशस्तिलक के बाद की रचना है क्योंकि नीतिवाक्यामृत की पूर्वोक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने को यशस्तिल महाकाव्य का कर्ता प्रकट किया है इससे स्पष्ट है, कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे 'यशस्तिलक' को समाप्त कर चुके थे ।
दक्षिण के इतिहास से विदित होता है कि उक्त कृष्णराजदेव ( तृतीय कृष्ण ) राष्ट्रकूट या राठोर वंश के महाराजा थे और इनका दूसरा नाम 'अकालवर्ष' था। ये अमोघवर्ष तृतीय के पुत्र थे। इनका राज्यकाल कमसे कम शकसंवत् ६७ से ८२४ ( वि० सं० २०३२ – १०२९ } तक प्रायः निश्चित है। ये दक्षिण के सार्वभौम राजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक मलिक या करत राज्य थे। कृष्णराज ने जैसा कि सोमदेवसूरि ने यशस्तिलक में लिखा हैसिंहल, चोल, पाण्ड्य और चेर राजाओं का युद्ध में परास्त किया था। इनके समय में कनड़ी भाषा का सुप्रसिद्ध कवि 'पोन्न' हुआ है, जो जैन था और जिसने 'शान्तिपुराण' नामक श्रेष्ठ प्रन्थ की रचना की है। महाराज कृष्णराजदेव के दरबार से उसे 'उभयभाषा कवित' की उपाधि मिली थी।
राष्ट्रकूटों या राठोरों द्वारा दक्षिण के चालुक्य ( सोलंकी ) वंश का सार्वभौमत्व अपहरण किये जाने के कारण वह निष्प्रभ हो गया था । अतः जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्ढालेक राजा बनकर रहे। अतः अरिकेसरी का पुत्र 'वाद' ऐसा हा एक सामन्त राजा था, जिसकी गंगाधारा नामक राजधानी में यशस्तिलक की रचना समाप्त हुई है। इसी अरिकेसरी के समय में कनडी भाषा का सर्वश्रेष्ठ जनकाने 'पम्प' हुआ है, जिसकी रचना पर मुग्ध होकर 'आरकेसरी' ने उसे धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोषिक में दिया था। उसके बनाये हुए दो ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हैं - १. ''आदिपुराणचम्पू और २ भारत या विक्रमार्जुनावजय । पिछला गन्थ शक संवत् ८६३ वि० [सं० ६६८) में - यशांस्तलक से २८ वर्ष पहले बन चुका था। इसकी रचना के समय अरिंकसरी राज्य करता था तब उसके १८ वर्ष बाद - यशास्तलक का रचना के समय --- उसका पुत्र सामन्त 'वद्दिग' राज्य करता होगा यह इतिहास से प्रमाणित होता हैं ।
विनीतसुन्दरलाल शास्त्री
१. "शकनृपकालातीत संवत्सर पातेष्वष्टस्वे काशीस्य विकेषु गतेषु अद्भुतः ( ८८१ ) सिद्धार्थसंवत्सर । न्तर्गत चैत्रमास मदनत्रयोदश्यां पाष सिंहल - चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य भल्याटी ( मेलपाटी) प्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्री कृष्णराजदेवे सति तसादपद्मोपजीविनः समधिगतपय महाशब्दमहासामन्ताधिपते श्वालायकुलजन्मनः सामन्त बूडामणेः सरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वागराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गणाधारायां विनिर्मापितमिदं काव्यमिति ।"
श्रीमदर्शिके
२. चालुक्यों की एक शाखा 'जोल' नामक प्रान्त पर सभ्य करती थी, जिसका एकभाग इस समय के धारवाड़ जिले में आता है और श्रीयुत आर०नरसिंहाचार्य के मत से चालस्य अरिगरी की रानी'लगेरी' में थी, जो कि इस समय 'लक्ष्मेवर' के नाम से प्रसिद्ध है। गंगाधारी मी संभवतः वही है ।