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________________ | • उपाधियाँ उनकी दार्शनिक प्रकाण्ड विद्वत्ता की प्रतीक हैं। साथ में प्रस्तुत यशस्तिलक के पंचम, षष्ठ व अष्टम श्वास में सांख्य, वैशेषिक व चार्वाक आदि दार्शनिकों के पूर्वपक्ष व उनकी युक्तिपूर्ण मीमांसा भी उनकी विलक्षण व प्रकाण्ड दार्शनिकता प्रकट करती है, जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर आए हैं। परन्तु केवल तार्किकचूडामणि ही नहीं थे साथ में काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि के भी धुरंधर विद्वान थे । कवित्व - उनका यह 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य इस ये और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था। जो सुन्दर पथ कहे हैं वे जानने योग्य है २-३ : बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि उसकी प्रशंसा में स्वयं प्रन्थकर्ता ने यत्र तत्र 'मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्यरस ) को भोग चुका हूँ। अतएव अब जो अन्य कवि होंगे, वे निश्चय से उच्छिष्टभोजी ( जूँठा खानेवाले ) गे वे कोई नई बात न कह सकेंगे । इन उक्तियों से इस बात का आभास मिलता है कि आचार्य श्रीसोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका यह महाकाया मह लपयोनिधि व कविराज कुअर-भादि उपाधियाँ की है भी न की प्रतीक हैं। धर्माचार्यश्व यद्यपि अभी तक श्री सोमदेवसूरि का कोई स्वतंत्र धार्मिक प्रन्थ उपलब्ध नहीं है परन्तु यशस्तिलक के अन्तिम तीन आश्वास (६८), जिनमें उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है एवं यशः के चतुर्थ आश्वास में वैदिकी हिंसा का निरसन करके अहिंसा तत्त्व की मार्मिक व्याख्या की गई है, इससे उनका धर्माचार्यत्व प्रकट होता है । राजनीतिज्ञता - श्री सोमदेवसूरि के राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण उनका 'नीतिवाक्यामृत' तो है ही, इसके सिवाय यशस्तिलक के तृतीय आश्वास में यशोधरमहाराज का चरित्र-चित्रण करते समय राजनीति की विस्तृत चर्चा की गई है। उक्त विषय हम पूर्व में उल्लेख कर आए हैं। विशाल अध्ययन - यशस्तिलक व नीतिवाक्यामृत ग्रंथ उनका विशाल अध्ययन प्रकट करते हैं । ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना भी जैन व जैनेतर साहित्य ( न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति, व दर्शन आदि ) उपलब्ध था, उसका उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था । स्याद्वादाचल सिंह शार्किकचक्रवर्ति वा भपंचानन वाकोलपयोनिधि कविकुलराजप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तालङ्कारेण षण्णवतिप्रकरण -युक्तिचिन्तामणिसूत्र - महेन्द्रमा तलिस जल्प-यशोधर महाराज चरितमहाशाखवेधसा श्रीसोमदेवसूरिणा विरचितं (नीतिवाक्यामृर्त) समाप्तमिति । नीतिवाक्यामृत १. देखिए यश० आ० १ श्लोक नं० १७१ २. देखिए आ०१ श्लोक नं० १४, १८, २३ । ३. देखिए आ• २ श्लोक नं० २४६, आ० ३ श्लोक नं० ५१४। ४. मया चागर्थ संभारे भुके सारस्वते रसे कषयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥ चतुर्थ आ पू० १६६ ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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