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________________ ३०० यशस्तिलकचम्पृकाव्ये विघटितवनकपाटदिशि निभूतपुरंदरचापमण्डले कमलामोदसुहवि संतपितहसबिटासिनीकुले । अभिनवकलामणिशपरिमछिनि विकासितकाशकाम्तिके कुछमकुसुमसुभगभुवि भवति न केलि: कस्य कार्तिके॥२९॥ प्रतपसि रविनिमयदि भवामिव सोप्र विधुरपि बुध प्रीति धने प्रवृपधारसः। अरिकरिकुल क्रीडाध्वंसे हरिध्यमिसोर स्वमपि च गुणारोपाचापं प्रपञ्चय भूपते ॥४३०॥ जरमपि सलिलं धसे खरदण्वं यत्र विगतविजिगीषुः । अजडविजिगीषुचेतास्तत्र कर्थ नो क्धीस खरखण्डम् ॥४३१॥ इति धापेटिकपेटिकप्रकटितकटकप्रयाणप्रस्तावर विजयवर्धनसेनापति सस्य पवालपढ़ेः प्रतापनोदनाय प्राहिणवम् । कवाविपारगिरिनिर्भरमीहारमिपन्दिनि गन्धमादनविनविभाजितभूर्जवल्कलोन्मायमन्थरे मानसईसविलासिनीशिखण्डमण्दुसविम्पिनि नेपालशैलमेखलामृगमामिसौरमनिर्भरे कुलूसकुलकामिनीकपोललावण्यचामिनि कम्पाकपुरपुरंधिकारमाधुर्यपश्यसोहरे पाकपाण्डिमोडमरगुण्डकाण्डकारिणि पायसदोल्लासपमानितन्वयबारे कोशकारस्याभिकापरिणामप्रणयिनि शिशिरसाल कीडा) नहीं होती ? अपितु सभी को होती है। समस्त दिशाओं के मेधरूपी किवाड़ों को दूरकरनेवाले व इन्द्र का धनुषवलय इटानेषाले जिसमें कमलों की सुगन्धि से व्याप्त हुआ सुहृद् (सूर्य) वर्तमान है अथवा जिसमें कमलों के लिए सुगन्धि देने का सुहृद् (उपकार) पाया जाता है। जो राजहंसी-श्रेणी को सन्तुष्ट करता हुआ नवीन धान्य-मारियों की सुगन्धि से सुशोभित है। इसीप्रकार जिसने काशपष्पों की कान्त विकासत की हे तथा जा काश्मार-कसर-पुष्पों से मनोहर भूमिधाला है ॥४२६|| हे राजन् ! इस शरद ऋतु के अवसर पर सूर्य लोक को उसप्रकार वेमर्यादापूर्वक विशेष सन्तापित कर रहा है कर आप [शत्रओं व अन्याययों को विशेष सन्तापित करते हैं। हे मनीषी! चन्द्रमा भी अमृतरस प्राप्त करता हुआ लोक को प्रसन्न कर रहा है। हे राजन् ! तुम भी शन्न-हाथियों के कुल का कीद्धापूर्वक ध्वंस करन क निमित्त सहनादका उत्कटतापूर्वक धनुष पर डोरी चढा कर उसे विस्तारित करो ॥ ४३० ।। ई राजन् ! जिस शरद ऋतु के अवसर पर तालाव-आदि का जल, जो कि जड (झानहीन) होकरक भी विजयभा का इच्छ। से राहत होता हुआ खरदण्ड (कमल) धारण करता है फिर उस शरद ऋतु म अजड़ ( ज्ञाना ) आर बिजयश्रा का इच्छा से व्याप्त मनवाला राजा किसप्रकार खरदण्ट ( तीक्ष्ण दण्ड ) धारण नहा करता? आपतु अवश्य धारण करता है ॥ ४३१॥ प्रसङ्गानुवाद-मारदत्तमहाराज! किसी अक्सर पर रजनीमुख को प्रचण्डतररूप से परिणत करनेवाली रात्रि (पूर्वरात्रि) में जब उत्तरदिशा से ऐसी हेमन्त ऋतु (अगहन व पौष माह) संबंधी शीतल वायु संचार कर रही थी तब 'प्रत्यक्षतान्य' नाम के गुप्तचर ने आकर मुझे निम्नप्रकार विज्ञापित (सूचित) किया कैसी है हेमन्त ऋतु की षायु.? जो हिमालय पर्वत संबंधी सरनों की शीतलता क्षरण करनेवाली है। जो 'गन्धमादन' नाम के वन में शोभायमान होनेवाली भोजपत्र-वृक्षों की त्वचाओं (पक्कलों का उत्कम्पन या पिलोडन करने के कारण मन्थर ( मन्दमन्द संचार करनेवाला) है। जो राजहंसियों के शिखण्डमण्डल मस्तकप्रदेश) को विजाम्बत (कम्पित) करनेवाली और नेपाल नामके पर्वत की बनभूमि में उत्पन्न होनेवाली कसरी की सुगन्धि से गादभूत है। जो कुलूत ( मरया ) देश की कुलकामिनियों के गालों का सौन्दर्य-जल पान करनेवाली व लम्पाकपुर की कुटुम्बबाली स्त्रियों की श्रोष्ठ-मधुरता की चोर है। पाक से प्रकट होनेवाली उज्वलता से सत्कट हुए श्वेतगनों की गाँठों को उत्पन्न करनेवाली जिसने पाले के जलकरणों के उल्लास द्वारा नवीन जी के अङ्कर पल्लवित किये हैं। जो श्याम गमों के श्यामिका को श्याम परिणति में लाती है। पियनविराजिभूर्जकुजराजिवल्कलोन्माथरे' क० । 'वनविभाजिभूजकुजराजिवल्कलोन्मायमन्थरे' वग०प०व० । १. रूपक व आक्षेपालंकार । २. अवसरोपमालंकार। . रत्वेषाक्षेपालकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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