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________________ मृतीय भावासः पञ्चमलोकपाल्परिकरिपतयात्रावसर इव संहतवति शरासनमाखाडाले, राजईसोस्सवसंपादनपर इव जलदकलुक्तो मुक्तवति गदमे, पयोधरविरहःखिस हब विरसस्थरतामनुसतवति प्रयलाकिलोके, स्वरातिजन इव मन्त्रमुदि पातककुले, स्वल्कटक. सुभटानीक इव रणरसोदरसहदि नदिसंबोई, अनना शुभ्रषन्ताको विषगनिम्ननिम्नगा। विजयाय जिमीपूणां शारदेषा समागता ॥४२६॥ विलसत्सरोजनयना प्रसन्न धन्दानमा विधनरागा। ईसप्रचारसुभगा लीव शरसव मुदं कुरुतात् ।।४२७॥ कुमुदं करोति वर्धयसि कुवलय विस्तृणोति मित्राशाः । भवत: श्रीरिव शरदियमुनलासिससस्पद्विजेना ॥४२८॥ शोभायमान होरहे थे । जब चन्द्र-विम्य उसप्रकार विशेष निर्मल कान्तिशाली होरहा था जिसप्रकार नवीन और उकीर करके निर्माण किया हुआ चन्द्रकान्तमणिमयी दर्पण विशेष कान्तिशाली होता है। जब इन्द्र अपना इन्द्रधनुष संकोचित किये हुए ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-यशोधर महाराज द्वारा आरम्भ कागइ दिम्बिजय-यात्रा का अवसर ही है। एतावता यह बात समझनी चाहिए कि वर्षा भूत ध्यतीत हुई और शरद ऋतु का आगमन होने से विजयश्री के इच्छुक राजाओं को दिग्विजय का अवसर प्राप्त हुआ है। इसीप्रकार जब आकाश मेध-कलुषता छोड़ता हश्रा ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-वह राजाँसों का उत्सव उत्पन्न करने में समर्थ होरहा है। जब मोरों का समूह नीरस ध्वनि का आश्रय किये हुए ऐसा प्रतीत होरहा था-मानों-मेष-वियोग से ही दुःखित होरहा है। जब पपीहा पक्षियों का मुण्ड उसप्रकार हर्ष-हीन होरहा था जिसप्रकार आपका शत्रुलोक हर्ष-हीन होता है और जब वृषभसमूह (बैलों का झुण्ड) उसप्रकार युद्धानुराग से व्याप्तचित्तवाला होरहा था जिसप्रकार श्रापकी सेना में वीर योद्धा-समूह युद्धानुराग से व्याप्त चित्तयाला होता है। स्तुसिपाठकों द्वारा किया हुआ प्रस्तुत ऋतु का विशेष वर्णन हे राजन् ! यह प्रत्यक दिखाई देनेवाली शरद ऋतु, जो कि मेघ-पटल से रहित होती हुई उज्वल चन्द्र और सूर्य से सुशोभित है एवं कर्दम-( कीचड़) शून्य होती हुई उथली नदियोंवाली है, विजयश्री के इच्छुक राजाओं की विजय के लिए प्राप्त हुई है। ॥४२६॥ हे राजन् ! ऐसी शरद ऋतु आपको हषित करे, शोभायमान (प्रफुल्लित) कमल ही जिसके नेत्र है, निर्मल चन्द्र ही है मुख जिसका, नष्ट होगया है मेघ-राग जिसका और राजहंसों के प्रचार से मनोज्ञ प्रतीत होती हुई स्त्री-सरीखी है। कैसी है स्त्री? शोभायमान है कमल-सरीखे नेत्र जिसके, निर्मल व परिपूर्ण चन्द्रमा के सदृश है मुख जिसका एवं विशेषरूप से प्रचुर है राग (प्रेम) जिसमें तथा जो नूपुर धारणपूर्वक संचार करने से सुन्दर प्रतीत होती है ॥ ४२७ ॥ हे राजन! यह शरद ऋतु उसप्रकार कुमुद ( श्वेतकमल) विकसित करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी कु-मुद (पृथ्वी को उल्लासित) करती है। यह उसप्रकार कुषलय ( उत्पलवन ) वृद्धिंगत करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी कु चलय (पृथिवी-मण्डल ) वृद्धिंगत करती है एवं यह उसप्रकार मित्र व आशाएँ (सूर्य और समस्त दिशाएँ ) विस्तारित करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी मित्र-आशाएँ ( मित्रों की आशाएँ ) विस्तारित (पूर्ण) करती है और यह उसप्रकार उल्लासित-सत्पथ-द्विजेन्द्रा ( उल्लासित किया है आकाश में चन्द्रमा को जिसने ऐसी) है जिसपकार आपकी लक्ष्मी उल्लासित-सत्पथ-द्विजेन्द्रा ( आनन्दित किये हैं धर्ममार्ग में तत्पर हुए उत्सम प्रामणों को जिसने ऐसी) है। ॥ ४२८ ॥ हे राजन् ! ऐसे शरद ऋतु संबंधी कार्तिक माह में, किस पुरुष को ___'वितानघनरागा' क०, विमर्श:-मु. प्रतिस्थः पाठः समीचीनः (छन्दशानामुकूल) सम्पादकः xविस्तृणाति' । १. जाति अषवा हेतु-गलबार । २. श्योपमालंकार। ३. इलेलोपमालंकार न समुरबगालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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