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________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये कदाचित्रवतीर्णायां परितोषितविजिगीषुपरिषदि शरदि सरसकाश्मीरसरोसिमांसलेषु कीरकामिनी कुलकुलेख पविर्भवस्कणिशमञ्जरीसौरभोझरेषु कलमकेदारेषु, कुलकलविव समर्यादगतिषु महावाहिनीवाहेषु, भवद्गणेविष निर्मलावकानेषु सरःसु, नुपतिकोदण्डमण्लेखिव प्रवृत्तप्रचारेषु थिषु, प्रचण्डमासण्यातपभीतेविर निरन्सस्सस्यानुफपिहितप्रहेषु विभागगेषु, सलिमपरसहकान्तामभाषित निवाशिषु शलशिखरेषु, विटिसधनकपासपुटास्थिव प्रकटास शिक्षु, विम्भमाणेषु मितसरस्वतीहासप्रकाशेषु काशेधु, विनयमानेषु प्रकाशितकमलबन्धुजीवेषु बन्धुजीयेषु, विलसत्सु मकरन्दमम्मादितकोकनदेषु कोकनरेषु, सपोतिषु परिमलोलासितवलयेषु कुवलयेषु, सप्रमोदेषु संपादितकमायनेषु मुवनेषु, विराजमानेषु विषदीधितिसंदिग्धशुचिपधेषु शुधिपक्षेषु, अभिनवोरिलखितेन्दुमणिदर्पण हयातीव प्रसन्नरोचिपि धन्नमण्डले, प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर हे मारिदत्तमहाराज ! किसी अवसर पर जब शरद ऋतु का, जिसमें विजिगीषु राजाओं की सभा हर्षित कराई गई है, आगमन हुआ तब मैंने, जिसके लिए निम्नप्रकार स्तुतिपाठक-समूह द्वारा सेना का दिग्विजय-अवसर प्रकट किया गया था, उस अचल नरेश का प्रताप नष्ट करने के हेतु 'विजयवर्धन' सेनापति को भेजा। हेराजन् ! क्या क्या होनेपर शरदऋतु का आगमन हुआ? जब 'कीर' देश की कामिनियों के केशपाश नवीन काश्मीर-केसरपुष्पों का मुकुट-धारण करने से मनोज्ञ प्रतीत होरहे थे। जब सुगन्धि धान्य खेत मध्य में प्रकट होती हुई कणिश-( नरम बालें ) मअरियों की सुगन्धि से अत्यन्त मनोहर होरहे थे। जब महानदियों के प्रवाह उसप्रकार सीमा-सहित गमनशाली होरहे थे जिसप्रकार कुलवती स्त्रियाँ सीमासहित ( मर्यादा-पूर्ण-सदाचार-युक्त) गमन (प्रवृत्ति) शालिनी होती हैं। जय तालाव उसप्रकार निर्मल (कीचड़-रहित ) प्रवेशवाले होरहे थे जिसप्रकार आपके गुण ( वीरता व झानादि) निर्मल (विशुद्ध) होने के कारण प्रवेशशाली (ग्रहण करने योग्य ) होते हैं। जब मार्ग उसप्रकार प्रवृत्तप्रचारशाली ( उत्पन्न हुए गमनवाले) होरहे थे जिसप्रकार राजाओं के धनुष-वलय प्रवृत्तप्रचारशाली ( उत्पन्न हुए प्रचार-बाणों का स्थापन व संचालन ) से अलङ्कृत होते हैं। जब पृथिवी-भाग उसभाँति सदा धान्यरूपी वस्रों से आच्छावित पृष्ठभागबाले होरहे थे जिसभाँति प्रचण्ड सूर्य की गरमी से भयभीत हुए पुरुषों के पृष्ट ( पीठ ) वस्त्रों से अच्छादित होते हैं। जब पर्वत-शिखर उसप्रकार हुरितकान्ति-युक्त (नीलवर्णवाले) होरहे थे जिसप्रकार वे मेघ-संगति से श्यामता प्रविष्ट करनेवाले होते है। जब समस्त दिशाएँ उसप्रकार प्रकट (स्पष्ट) होरही थी जिसप्रकार वे, जिनका मेघरूपी कपाट(किवाद) संपुट दूर किया गया है, प्रकट दिखाई देती हैं। जब काश सरस्वती-हास्य की उज्वल कान्ति तिरस्कृत करते हुए वृद्धिंगत होरहे थे। जब सूर्य का स्वरूप प्रकट करनेवाले (सूर्यमण्डल-सरीखी लालिमायुक्त) बन्धुजीव नामके पुष्प जयशील (विकसित) होरहे थे। जब लालकमल पुष्परसरूपी मद्य से उन्मत्त किये गए चकवा-चकवी से व्याप्त तालाषाले होते हुए शोभायमान होरहे थे। जब प्रफुल्लित कुवलयों ( कुमुदों-चन्द्रविकासी कमलों) से व्याप्त हुए कुवलय ( भूमिभाग) प्रसन्न होरहे थे। जब कुमुदवन ( शेतकमल समुह ) संपादितकु-मुक्-श्रवनशाली होते हुए, अर्थात्-जिनमें पृथिवी का हर्ष-रक्षण उत्पन्न कराया गया है, ऐसे होते हुए विकसित होरहे थे। जब शुचिपक्ष ( शुक्लपक्ष ), जिनके शुचिपक्ष (श्वेत पंखोवाले हँसादिपक्षी) चन्द्रकिरणों के विस्तार द्वारा संदेह को प्राप्त कराये गये हैं, ऐसे होते हुए शोभायमान होरहे थे। अर्थात्-जो (शुक्लपक्ष ) चन्द्रकिरणों के विस्तार द्वारा श्वेत पंखवाले हँस-आदि पक्षियों में इसप्रकार का सन्देह उत्पन्न कराते हुए (कि ये इस हैं ? अथवा चन्द्र की शुभ्र किरणें हैं ?) *उक्त शुयायः ३० प्रतितः समुद्भूतः, मु. प्रतो तु 'कुरलकुन्तलेषु' पाठः ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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