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________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये पुनहल्लिखितला म्हनचन्द्र समवनमण्डले लक्ष्मीरूपाविजयिभुवशिरूर सैन्दर्य भाजि सपरमसंतान सम्बोपाटनपोईण्डमण्डीविडम्बित स्तम्बेरम कराकारे श्रीसरस्वती जलये जिरी बिकालाधन करणचतुरचक्षुचि मनागुद्यमानशेमल्यामिकामदरेखामसिहरुले गिजालान स्तम्भशोभमानोरुणि स्पर विलास निवासविलासिनीजनोन्मादसंपादन सिद्धये संसारसारजन्मनि मनोजननामानममभिनव मिश्रृङ्गार भीमरकरणवृतिनि समुपपैपकाधः कृतजगत्त्रये सवातजन्नस्य व परिजनस्य अनिलराज्य कण्ठिकाबन्धन मनोरथेऽवतीर्णे मोदी निम्म्या भिया व नित्यं निजात्रासमहत्त्वलांना कृतापसीमो भवते मध्यस्तदा हनुवं परमस्मदीयः ॥ ९४ ॥ को मन्त्री नृपतेर्यशोधर इति ख्यातः मृतः को रं हन्ता वैरिव यशोधर इति कपातः सुतः कः सखा । कार्यारम्भविष पयोधर इति ख्यातः मृतो यस्य में लोकमवाप तातविषये प्रश्नोत्तरस्वं स्थितिः ॥ ९५ ॥ लावण्ये, तथा : १३२ सत्पश्चात् अब मेरा ऐसा तारुण्य ( युवावस्था) सौन्दर्य प्रकट हुआ, जिसमें मेरा मुख मण्डल, लाञ्छन रहित चन्द्रमा सरीखा आनन्ददायक था। जो लक्ष्मी के कुचकलशों ( स्तन कलशों ) को लग्नित करनेवाले मनोश दोनों स्कन्धों के सौन्दर्य से सुशोभित था। जिसने शत्रु समूह रूपी वृक्ष-स्कन्ध को जड़ से उखाड़ने में समर्ध व शक्तिशालिनी भुजारुपी दंडमण्डली द्वारा हाथी के शुद्धादण्य (ड) की आकृति तिरस्कृत की थी। जिसमें मेरे दोनों नेत्र स्वर्गलक्ष्मी व सरखती की जलक्रीड़ा करने की बावड़ियों को लज्जित करने में चतुर थे। जिसमें मेरे दोनों गाल-स्थल कुछ-कुछ प्रकट हुई रोमराज की श्यामता रूपी मदरेखा (अवानी का मद वहना) से शोभायमान होरहे थे। जिसमें मेरी दोनों जताएँ दिग्गज के बाँधनेलायक खम्भों सरीखी अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होती थीं। जो जवानी का सौन्दर्य ) काम की संभोग-कीड़ा की स्थानीभूत कमनीय कामिनियों के समूह को उन्मन्त (कामोद्रेक से मिल-बेचैन ) करने में सिद्धौषधि (अव्यर्थ चौषधि) के समान था | जिसकी उत्पात्त संसार में सर्वश्रेष्ठ हैं। जिसमें कामदेव रूपी नाटकाचार्य द्वारा मनरूपी नवीन नाटक -पात्र ( एक्टर ) नचाया जा रहा है। जिसमें निरङ्कुश ( बेमर्याद ) वेषभूषा (मकाभूषणादि ) रूप शृङ्गार से इच्छारूपी वरों से उछलनेवाली मानसिक विचित्रता ( विकृति ) द्वारा पंचेन्द्रियों की प्रवृत्ति पश्चल होजाती है। अर्थात् जिसमें निरङ्कुश वेष-भूषा द्वारा उद्भूत मानसिक विकार के कारण समस्त चक्षुरादि इन्द्रियाँ अपने अपने रूपादि विषयों में चञ्चलता पूर्वक प्रवृत्त होजाया करती हैं और जिसमें उत्पन्न हो रही मद की अधिकता से तीनों लोक अधःकृत किये गए हैं एवं जिसने पिता जी सहित कुटुम्बी-जनों के ह्रदय में मेरे लिए युवराज-पद की मोतियों की कष्ठी गले में पहिनाने की अभिलाषा उत्पन्न कराई थी। उसीप्रकार उस युवावस्था संबंधी सौन्दर्य के आगमन समय केबल मेरे उदर-देश ने कृशता ( क्षामता-पतलापन ) प्राप्त की थी । अतः ऐसा मालूम पड़ता था मानों - नितम्बलक्ष्मी व वक्षःस्थल- लक्ष्मी ने मेरे मनोश शरीर पर सदा अपना निवास करने की तीव्र इच्छा से ही मेरे उदर-देश की बृद्धि-सीमा अल्प (छोटी) कर दी थी, जिसके फलस्वरूप मानों - षड् कृश होगया था ||१४|| उस समय मेरे जगप्रसिद्ध [ पराक्रमशाली ] व्यक्तित्व ने पिता के समक्ष किये हुए लोगों के निम्नप्रकार प्रश्नों का समाधान करने में प्रवीणता प्राप्त की थी। जब कोई पुरुष किसी से प्रश्न करता था कि यशोर्घ राजा का बुद्धि सचिव कौन है ? तब वह उत्तर देता था, ,कि यशोधर नाम के राजकुमार ही प्रस्तुत राजा के बुद्धि-सचिव * 'कण्ठकण्ठिका' इति क० । १. प्रेक्षालंकार | 1 'नितम्बलक्ष्म्या' इत्यादिना पुरुषस्य नितम्बसंपूर्णने नायुकं त्यागेन समं प्रथिमानमाततान नितम्बभागः सॉट (०) से संकलित - सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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