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मुवीय आधासः
२११ प्रवृत्तसङ्गेषु महेषु को माम नराणां कालमायामह हत्याकलव्य पर्वरसेप्यपि दिवसेषु मुमुक्षुरिष म शाकमुष्टेयवमुटेवापरमाइरस्याहारम् । ईषजन्यशुभमन्यत्रोपापितमात्मन्युसबीअमिव जन्मान्तरे शतशः फलतीसि दयालुमावादुरितभीरुभावाची नवलं कसं पा योगीय स्वयमवचिनोति पनसतोन् । परोपराधावनुभव सन्नापतापाचस्पर्शपूतमनुभवति । केववं मयि चिरपरिचयोदन्वयसीमस्नेहनिध्मस्वास्सुदिप वृत्तविनाकारमपि राज्यभारमूरीकृतवान्। मालम्पटमनस्कारोऽस्वीर कचिद्विपश्चितप्यधिगताधिकारी नर इति उपभिचारयिमुमिव कुशलाशयतया व घशतेनापि नाति प्रविन्दुनापि न स्पृश्यास पति मत्वा धर्ममूलस्थान्महाकुलप्रसूतेर्महाभागपप्रादुर्भुतेश्च धर्मसंवर्धन विधिल्पुना, प्रजामूलबास्काशवे स्तन्त्रवृद्धश्च प्रजापान भात का पास छोड़कर दूसरा पाहार । जाभादि) र नहीं जाता जिसप्रकार मोक्ष का इच्छुक साधु शाकमात्र अन्न को छोड़कर दूसरा गरिष्ठ भोजन नहीं करता । "दूसरे प्राप्मी के लिए दिया गया थोड़ा सा दुःख, दुख देनेवाले प्राणी को दूसरे भव में सैकड़ों, हजारों, लाखों व करोड़ों गुना उसप्रकार फलता है। अर्थात्-दुःख रूप फल उत्पन्न करता है जिसप्रकार उपजाऊ पृथिवी पर बोया हुश्रा बीज कई गुना फलका है" ऐसा निश्चय करके जो ( मन्त्री) दयालुता-यश अथवा पाप से भयभीत होने के कारण वृक्षों के फल व पत्तों को उसप्रकार स्वयं नहीं तोड़ता जिसप्रकार धर्मध्यान में तत्पर हुआ योगी वृक्षों के फल म पत्ते नहीं तोड़ता और यदि कुटुम्ब-आदि के आग्रह वश वृक्षों के फल व पत्तों का उपयोग करता भी है तो उन्हें सूर्य व अग्नि के स्पर्श से पवित्र (प्रासुक-जीव-रहित ) किये बिना भक्षण नहीं करता।
केवल उसने मेरे में चिरकालीन ( बाल्यकाल से लेकर अभी तक ) परिचय (संगति से उत्पन्न हुए सीमातीत प्रेम के निन्न (अधीन ) होने के कारण ऐसे राज्यभार को, जो कि चारित्र-पालन में बिन्न उपस्थित करने की मूर्ति है, उसप्रकार स्वीकार किया है जिसप्रकार मित्रजन (कुटुम्बवर्ग) कार्य-भार स्वीकार करता है।
हे शङ्कनक ! मैंने क्या क्या समझकर उक्त 'पामरोदार' नाम के पुरुष को अपने देश का मंत्र नियुक्त किया ? मैंने धर्म-वृद्धि करने के इच्छुक होते हुए यह समझकर कि "उत्तम कुल में जन्मधारण करने में धर्म ही मूल (प्रधान कारण) है। अथोत्-धर्म के कारण से ही प्रशस्त कुल में जन्म होता है, धर्म के बिना श्रेष्ठ कुल में जन्म नहीं होता और स्वर्ग व मोक्षपद की प्राप्ति में धर्म ही मूल है। अर्थातधर्म से ही स्वर्ग व मोक्षपद प्राप्त होता है, धर्म के बिना स्वर्ग व मोक्षपद प्राप्त नहीं होसकता ।" इसीप्रकार "कोई भी विद्वान् निर्लोभ चित्तवाला होकर मंत्री आदि पद को प्राप्त नहीं कर सकता । अर्थात्-"लोभी पुरुष ही मंत्री-आदि के अधिकारी पद प्राप्त कर सकता है" इस सिद्धान्त को असत्य सिद्ध करने के लिए ही मानों-उसे मन्त्री पद पर नियुक्त किया है। क्चोंकि यद्यपि वह हजारों घड़ों से स्नान करता है। अर्थात्-प्रजा की अनेक आर्थिक (धन-संबंधी) उलझाने सुलझाता है तथापि कुशल अभिप्राय (धर्मबुद्धि) के कारण भिन्दुमात्र जल से जिप्त नहीं होता (जरा सी भी लाचचूंस-आदि नहीं लेता-जरा-सा भी पाप नहीं करता)।
* 'इत्याकलण्यापर्वेष्वपि दिवसेघु' का। १. त्याच्च' सटीकपुस्तकपाः ।
+ 'चिरपरिचयोदश्चरसीमस्नेहनिष्माकारमपि राज्यभारमुरीकृतवान्' ३० । “चिरपरिचयोदश्चदसीमस्नेह' शेष मु. प्रतिवत् प० च । “विन्दुना प स्पृश्यते' प० । २. उक्तं च-'परतन्त्रः पराधीनः परवानाथवानपि । अधीनी मिध्य भायतोऽस्वच्छन्दो सहाकोऽप्यसो ॥९॥
यश, सं. टी. पू. ४०९ संकलित-सम्पादक