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यशस्विरूपम्पूमग्ये पागुरुमात्रीमपि धरित्रों अकर्षयति, महाकृपालुतया सत्वसमभयेम पदास्पदमपि भ्रमभषिक इस भाव दार पावपरित्राणम्, पात: परमपरस्पृहालुसया स्वैरकारस्थापि कर्मदीय न तृप्यति विषविषमोक्नेषु विषयसुखेड, सदैव शुचिरिव प्राचारी तथापि होकव्यवहारप्रतिपालना) देवोपालनापामपि मासुस्य खालस laws जनितकल्मषप्रणायाघमर्षणतम्बार । मन्नान् । भास्तां तावाशुभस्य दर्शनं स्पर्शमं च, किंतु मनसायस्थ परामर्श गांसितमत इव प्रत्यादिशस्यासम् । असा गर्भिणी के उदर सरीखा होता है। अर्थात्-जिसप्रकार बीज (वीर्य ) के पतन द्वारा गर्भिणी का उदर उल्लासित-आनन्दित होता है उसीप्रकार पृथ्वीतल भी जल-वृष्टि द्वारा उल्लासित-आनन्दि-होता है। अत्यन्त दयालु होने के कारण अङ्गष्ट प्रमाण भी पृथिवी नहीं खोदता। जिसप्रकार दयाल मुनि प्राणि-घात के भय से कात-पादुका (खनाऊँ) नहीं धारण करता उसी प्रकार जो जीव-पात के भय से एक पद ( उग) मात्र भी पृथिवी पर संचार करता हुआ काय-पादुका नहीं पहिनता।
जो (मंत्री) पूर्णरूप से मोक्षपद की प्राप्ति का इच्छुक होने के कारण अपनी इच्छानुसार कही जानेवाली कथाओं के अवसर पर भी ऐसे विषय-सुखों की, जिनका अन ( भविष्य ) विष के समान करतर (प्राणघातक) है, अभिलाषा उसप्रकार नहीं करता जिसप्रकार तपस्वी ( साधु) विषय मुख्य की अभिलाण नहीं करता। जो (मन्त्री) ब्रह्मचारी होने के फलस्वरूप उसप्रकार शुचि (पषित्र) है जिसमकार शुधि ( अग्नि ) पषित्र होती है, इसलिए 'ब्रह्मचारी सदा शुचिः' अर्थात् 'प्रझचारी सदा । पवित्र होता है। इस नीति के अनुसार जो सदा पवित्र होने पर भी लोकव्यवहार पालन करने के उद्देश्य सेअर्थात्-'अस्नातो देवान् न प्रपूजयेत् अर्थात् विना स्नान किये देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए' इत्यादि लौकिक व्यवहार पालन करने के अभिप्राय से-देवपूजा करने के लिए भी उष्ण अस से स्नान करने के पश्चात् जल जन्तुओं को पीड़ित करने से उत्पन्न हुए पाप की शान्ति-हेतु पाप ना | करने में समर्थ मन्त्रों का आप उसप्रकार करता है जिसप्रकार बैखानस (सपस्वी) पाप नष्ट करनेवाले । मन्त्रों का जप करता है।
_जो अशुभ वस्तुओं (मद्य, मांस, गीला चमदा व चाण्डालादि) का दर्शन (देखना) मौर स्पर्श (एल) सो दूर रहे किन्तु मनोवृत्ति द्वारा अशुभ पदार्थों कासंकल्प मात्र होने पर भी भोजन संबंधी अन्तराय उसप्रमाण करता है । अर्थात्-भोजन को उसप्रकार छोड़ देता है जिसप्रकार अहिंसादि महाव्रतों को पालनेवाला मुनि भोजन के अघसर पर अशुभ वस्तुओं के दर्शन या स्पर्श से भोजन-त्याग करता है। भावार्थ-शासबो ने कहा है कि व्रती (श्रावक या मुनि) को भोजन के अवसर पर मांस, रक्त, गीला चमड़ा, दही, पीप, मुर्दा मल-भूत्रादि, इन अमुभ पदार्थों के देखने पर भोजन छोड़ देना चाहिए और चाण्डाल व कुस्त-श्रादि पाला जीवों के देखने पर अथवा उनके शब्द सुनने पर तथा छोड़े हुए अम-आदि पदार्थ के सेवन के अवसर पर भोजन छोड़ देना चाहिए ॥ १-२॥ प्रकरण में यशोधर महाराज 'शजनक' नाम के गुप्तचर से प्रश्न 'पामरोदार' नाम के मंत्री का सदाचार वर्णन करते हुए उक बात कह रहे हैं।
___इसीप्रकार जो (मन्त्री) 'मरने के पश्चान् जीवात्मा के साथ न जानेवाले शरीरों का पुष्ट करना मनु के लिए निरर्थक है' इसप्रकार निश्चय करके पर्व (दीपोत्सव आदि) दिनों में भी शाकमात्र प्रास अथवा को १. उक्त च-मसरकाईचर्मास्थिपूयदर्शनतस्त्यजेत् । मृतानिरीक्षणादक प्रत्याख्यातामसेवनात् ॥१॥ माता दवपचादीनां दर्शने ताच श्रुतौ । भोजन परिहर्तव्यं मलमूत्रादिदर्शने ॥२॥
___ यशस्तिलक की संस्कृत टीका पु. ४०८ से समुदत-समाज ।