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तृतीय आघासः
२५६ कवापिकातलीकृतसकलसधिवतःफूटकपट काएटिक, यः स्खलु मा समन्वयागतप्रजाप्रणये खानपदविण्ये सचिसमृद्धोऽपि प्रसप्रश्रिताशयतया विविधास्वपि खीषु महर्षिरिषासंबातस्मरशरमारण्यहदयः, संसारसिमिरावसरावेशोऽपि र मनागपि प्रभाछेपीमणिरित्र संपन्नमहिनाभिनिवेशः, पयःपातीच्यसितस्य महीतलस्य गर्भिणीजठरसमस्यादतिकारुणिकत
मन्त्री के मन में स्थित हुए समस्त झूठे पाखण्ड को हथेली पर रक्खे हुए आँवले की तरह स्पष्ट जाननेवाले ऐसे है शङ्खनक ! जिस देश की प्रजा के साथ मेरा वंशपरम्परा से स्नेह चला आरहा है, उस अवन्ति देश के मध्य निश्चय से मेरे द्वारा जो 'पामरोदार' नाम का मंत्री नियुक्त किया गया है, जो कि अपने योग्य किंकरों की सेना सहित है एवं जिसने बुद्धि ( राजनैतिक बान) के प्रभाव से बृहस्पति भण्डल को नजित किया है तथा [जो निम्नप्रकार कहे जानेवाले प्रशस्त गुणों से अलंकृत है ], उसका इस समय प्रजा के साथ फैसा आचार ( वर्ताव ) है? कैसा है वह 'पामरोदार' नाम का मंत्री ?
परिपूर्ण ऋद्धि ( लक्ष्मी) से अलंकृत होनेपर भी ब्रह्मचर्यव्रत से विनीत अभिप्राय यश जिसका हृदय तीनों प्रकार की ( वाला, युवती व मध्यम अवस्थावाली) दूसरों की कमनीय कामिनियों में उसप्रकार काम-बाणों द्वारा चींधने योग्य नहीं है जिसप्रकार परिपूर्ण ऋद्धियों ( अणिमा-व महिमा-श्रादि ऋद्धियों) से अलंकृत हुश्रा महर्षि थहिंसादि व्रतों से विभूषित होने के कारण खियों में चित्तवृत्ति नहीं करता। भावार्थ-नीतिकार सोमदेयमूरि ने कहा है कि दूसरे की त्री की ओर दृष्टिपात करने के अवसर पर भाग्यशाली पुरुष अन्ये-जैसे होते है। अर्थात्-उनपर कुदृष्टि नहीं डालते । अभिप्राय यह है कि उनका अपनी पल्ली के सिवाय अन्य स्त्रीजाति पर मान-भगिनीमाव होता है। हारीत विद्वान् के उद्धरण का भी अभिप्राय यह है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में विशेष पुण्य संचय किया है-भाग्यशाली हैं-वे दूसरे बने स्त्री की ओर कुदृष्टि-पूर्वक नहीं देखते ।।१।। प्रस्तुत नीतिकार लिखते है कि 'शील (नेठिक प्रवृत्ति-सदाचार) ही पुरुषों का श्राभूषण है, ऊपरी कटक कुण्डल-आदि-श्राभूषण शरीर को कष्ट पहुँचानेवाले हैं, अत:चे धास्तविक आभूषण नहीं। नीतिकार भरी हरि मे भी है कि "कानों की शोभा शास्त्र-श्रवण से है न कि कुण्डल धारण से, हाथों की शोभा पात्र-दान से है न कि कण-धारण से एवं दयालु पुरुषों के शरीर की शोभा परोपकार करने से होती है न कि चन्दनादि के लेप से ||शा" प्रकरण में यशोधर महाराज प्रस्तुत मन्त्री की प्रशंसा करते हुए उक्त गुमचर से कह रहे है कि उक्त मंत्री भाग्यशाली है; क्योंकि यह धनाढ्य होनेपर भी दूसरों की कमनीय कामिनियों के प्रति मद्दर्षि के समान मातृ-भगिनीभाव रखता है। हे शजनक ! जो मंत्री [प्रथम युवावस्था में प्रविष्ट होने के कारण ] संसार संबंधी अन्धकार ( दीनता) के अवसर के प्रवेशवाला होनेपर भी उसप्रकार थोड़ा-सा भी मलिन अभिप्राय ( नीतिविरुद्ध प्रवृत्तिदुराचार ) प्राप्त करनेवाला नहीं है जिसप्रकार महान् ज्योतिशाली रत्न मलिनता ( कृष्णता या किट्टकालिमादि मलिनता ) प्राप्त नहीं करता। जो यह सोचकर कि 'जल-वृष्टि द्वाय उल्लासित (आनन्दित) हुआ पृथ्वीतल
१. तथा च सोमदेवसूरिः-परकलप्रदर्शनेऽन्यभावो महाभाग्यानाम् । २. तया च हारीतः-अन्यदेहान्तरे धर्मो थैः कृतश्च सुपुष्कला। इह जन्मनि तेऽन्यस्य न वीक्षन्ते निलंबिनीम् ॥१॥ ३. सपा व सोमदेवसूरिः शीलमलबारः पुरुषाणां न देहखेदायही बाहराकल्पः ॥ १ ॥
नीतियाक्यामृत से संकलित-सम्पादक ४. तथा च भर्तृहरिः-श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पागिर्न तु कारणेन :
भाति कायः करुणाकुलाना, परोपगारेण न तु चन्दनेन ॥१॥ भर्तृहरिशतक से संग्रहात–सम्पादक