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यशस्तिवकपम्पूकाव्ये चिकीर्षुणा, प्रकृतिमूलस्वादसाभ्यसाधनस्य पावाभावरोधनस्य व प्रकृतिप्रससिमुत्पिपादयिषुणा, सत्पुरुम्मूलत्वादशेषकामयुत्पतेविशिष्टाचारप्रवृत्तेत्र सत्पुरुषासविक्षुणा, प्रतिपक्षापायमूलत्वावासोत्कर्षस्य प्रतापप्रकर्षस्य च प्रतिपक्षापार्य + समीचिक्षणा, राज्यलक्ष्मीमूलस्वादिषयसुखोपसर्पणस्याधिजनसंतर्पणल्य व राज्यलक्ष्मीमुहिलासयिषुणा च, आत्मोबिखानुचरअमयुक्तो नियुक्तः प्रज्ञाप्रभावतिरस्कृतवाईसत्यः पामरोदाराभिधानोमात्यः स कोरास्थितिः संप्रतीति लादरमादृष्टादस्मादिदमौषम् । तथा हि-जापटेका माह-देव, यधाययं कथयामि। किंतु तद्वाावातूलीव्यविकराईवस्याप्युपरि किचिरफ्वाजः प्रसरिष्यति। यसः
एज्यमन्जं नियः सङ्गाजज्येष्ठापान न कैरवम् । प्रायो अनेऽन्यसंसर्गाद्गुणिता दोणिसापि च ।। ११९ ॥
इसीप्रकार "कोश (खजाने ) की वृद्धि में प्रजा ही मूल (प्रधान कारण ) है। अर्थात्प्रजा से ही कोष वृद्धि होती है, क्योंकि प्रजा के बिना कोश-वृद्धि नहीं होसकती और सैन्य वृद्धि में भी प्रजा-संरक्षण मूल है। अर्थात्-प्रजापालन से ही सैन्य-वृद्धि होती है। क्योंकि प्रजापालन के विना कदापि सैन्यवृद्धि नहीं होसकती।" ऐसा निश्चय करके प्रजापालन के इच्छुक होते हुए मैंने उसे मंत्री पद पर नियुक्त किया है। इसीप्रकार प्रकृति ( सैन्य-आदि अधिकारी-गप्प ) में प्रसमता उत्सम कयने के इच्छुक होते हुए मैंने उसे मन्त्री-पद पर नियुक्त किया। क्योंकि विषम दुर्ग ( किला ) वगैरह की रचना में प्रकृति ( अधिकारी-गण ) ही प्रधान कारण है । अर्थात्-- प्रकृति के विना असाभ्य दुर्ग-आदि नहीं बनाए जासकते एवं शत्रुओं द्वारा किये जानेवाले उपद्रों का रोकना भी प्रकृति के अधीन है, क्योंकि प्रकृति के विना शत्र-कृत उपद्रव (हमला-आदि ) नहीं रोक जासकते। इसीप्रकार मैंने सत्पुरुषों का संग्रह करने के इच्छुक होते हुए उसे मन्त्रीपद पर नियुक्त किया। क्योंकि समस्त शाम-शान में और सदाचार-प्रवृत्ति में सत्पुरुष ही मूल ( प्रधान कारण ) हैं। अर्थात्समस्त शासों का मान व सदाचार-प्रवृत्ति सत्पुरुषों के बिना नहीं होसकती। इसीप्रकार मैंने शत्रु-क्षय के विचार के इच्छुक होते हुए उसे मन्त्री-पद पर नियुक्त किया है। क्योंकि आज्ञा-उत्कर्ष ( वृद्धि ) मैं और प्रताप-(सनिकशक्ति व कोश-शक्ति) प्रकृष्टता (विशेषता) में शत्र-क्षय ही प्रधान कारण है। अर्थात्-शत्रुओं के विना बना पाहा-वृद्धि व प्रताप-प्रकर्ष नहीं होसकता। इसीप्रकार राज्यलक्ष्मी को उल्लासित (आनान्दत ) करने के इच्छुक होते हुए मैंने उसे अपने देश के मन्त्री पद पर आरूढ़ किया है। क्योंकि विषय-सुख की प्राप्ति और याचकों को सन्तुष्ट करना, इन दोनों की प्रासिम में राज्यलक्ष्मी ही प्रधान कारण हैं। अर्थात्-राज्य लक्ष्मी के बिना न तो विषय-मुख प्राप्त होसकता है और न याचक ही सन्तुष्ट किये जासकत है।
अथानन्तर मैंने प्रस्तुत 'शजनक' नाम के गुप्तचर से निम्नप्रकार मन्त्री संबंधी वृत्तान्त श्रवण किया
'शङ्कनक नाम के गुप्तचर ने मुझसे ( यशोधर महाराज से) कहा-हे राजन् ! उक्त विषय ( मन्त्री के विषय ) पर में प्रबन्ध रचना ( काव्य-रचना) करता हूँ किन्तु उस मन्त्री के समाचाररूपी वायुमण्डल के व्यक्तिकर (संबंध) से आप के मस्तक पर भी कुछ अपकीर्तिरूपी धूलि व्याप्त होगी, क्योंकि :
जिसप्रकार कमल लक्ष्मी के संसर्ग से पूज्य होजाता है और श्वेतकमल ज्येष्ठा ( देवता विशेष-लक्ष्मी की बड़ी बहिन दरिद्रा) के संसर्ग से पूज्य नहीं होता उसीप्रकार मनुष्य भी प्रयः करके दूसरों की संगति-विशेष से गुणवान व दोषवान होजाते हैं। अर्थात्-गुणवान् शिष्ट पुरुषों
+ 'समाधिक्षिषुणा ( समीक्षितुमिच्छुना )"ए। * 'लक्ष्मीज्येष्ठभगिन्याः दरिदासः' इति टिप्पणी ग० प्रसौ।