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________________ द्वितीय आधासः संसारसागरमिमं अमवा नितान्त जीवन मानवमयः समवापि वा। सन्नापि मानुषममान्यकुबे प्रसूतिः सत्संगतिक विहायकवकीलम् ॥ १५ ॥ हाब्यावनस्पतिगतेश्युत पर जीका वधु बलमपान पुनः प्रयाति । देम्पः परस्परविरोधियगप्रसूतावस्याः पशुप्रतिनिभेषु कुमामोषु ॥ १५ ॥ संसारयन्त्रमुक्यास्तपटीपीत सातानतामसपुणे मृत्तमाश्खिोयः । इत्यं भर्गविसरिस्परिवर्तमध्यमाबाहयेल्वयकर्मपछामि मोक्कुम् ॥ १५५ ॥ भारतासोकभयभोगकापुत्रैः खेड्येन्मभुजबम्म मनोरयाप्तम् । नून स भस्मवधीरिह रस्मरापिासहीपयेवतनुमोहमलीमसात्मा ॥ १९ ॥ पाहाप्रपद्यविमुखस्य शमोन्मुखस्य भूतानुकम्पनरुका प्रियतत्वाचा। प्रत्याप्रतक्ष्यस्म जिवधिपस भव्पस्प बोधिरियमस्त पदाय मे ॥ १५ ॥ इति बोध्य प्रेक्षा ॥ १५ ॥ अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-इस चतुर्गतिस्प संसार-समुद्र में अत्यन्त भ्रमण करनेपाली मात्मा ने विशेष पुण्योदय से यह मनुष्य जन्म प्राप्त किया और उसमें भी लोक में प्रशंसनीय क्ष (बामणादि वंश) जन्म धान और सजन पुरुषों की सानि प्राप्त होना यह तो पन्धकपर्वकीय न्या' सरीखा महादुर्लभ है। अर्थात्-जिसप्रकार अन्धे पुरुष के हाथों पर घटेर ( पक्षी-विशेष) की प्राप्ति महादुर्भभो उसीप्रकार मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर भी उवर्षश सत्संग की प्राप्ति महादुर्लभ है। ॥१५॥ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत होनेवाला यह जीव महान् कष्ट-समूह से वनस्पति की पर्यायों (निगोद आणि पर्यायों) से निकला। यहाँ से निकलकर इसने पापक्रमों के वश से धारबार नरकगति को पर्याय प्रहण की। यहाँ से कष्टपूर्वक निकलकर यह परस्पर एक दूसरे से वर-विरोध करनेवाले मृग-व्यापावि तिर्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः यहाँ से निकला हुआ यह पशु-समान निन्ध मानषों ( कुभोग भूमि-संबंधी विकराल शरीर-धारक मनुष्यों ) में उत्पन्न हुआ ॥१५४॥ इसप्रकार यह जीव षयं उपार्जन किये हुए पुण्य-पाप कर्मों का सुख-दुःख रूप फल भोगने के हेतु ऐसे संसाररूप घटीयन्त्र (रिहिट ) प्रसंचालन करता है, जो सूर्य के उदय व अस्त होनेरूप जलपूर्ण धरियों से व्याप्त है। जिसमें सातान (महान् प विस्तृत ) पाप श्रेणीरूपी घरियों की बाँधनेवाली रस्सियों है और जो मानसिक पीड़ाओंरूपी जमाराशियों से भरा हुआ है एवं जिसका मध्यभाग पारगति ( नरकगति, तिर्यक्रगति, मनुष्यगति प देवगति) रूपनदियों में चक्र जैसा घूमता है। ॥१५॥ ओ मानव रोग, शोक, भय, भोग ( कर्पूर कस्तूरी-आदि भोग सामग्री ), कमनीय कामिनी व पुत्र-आदि में उलझ कर अनेक मनोरथों से प्राश किया हुमा यह मानवीय जीवन व्यतीत कर देता है, विशेष अहान से मलिन आत्मावाला यह अज्ञानी भस्म प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने पास की अमूल्य रन-राशि जला देखा है। अर्थात्-जिसप्रकार भस्म के निमित्त अमूल्य र राशि का जलाना महामूर्खता है उसीप्रकार भोगों के निमित्त महादुर्लभ मानवीय जीवन का व्यतीत करना भी महामूर्खता है' ।।१५६।। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत होनेपाली यह रसत्य ( सम्यग्दर्शन-बान-चारित्र) की प्राप्ति, ऐसी भव्यात्मा को मोक्षपद की प्राप्ति के लिए समर्थ होवे, जो विषयकषाय के विस्तार से विमुख-दूर-होकर प्रशम (क्रोधादि कवायों की मन्दता व खत्तमझमा) की प्राप्ति में तत्पर है। प्राणिरक्षा करने में श्रद्धालु हुए जिसकी पाणियाँ कानों को अमृत-जैसी मीठी और यथार्थ है 1. उपमालङ्कार । २. अपमालद्वार। ३. समकालंकार । ४. स्टान्तालंकार । * अंतानसामसपुर्ण' इति ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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