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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
'कृतः कीर्तिज्योत्स्नाप्रसरदमृतासार अष्टिलेरयं वह्मस्तम्वो धवलभवनाभोगसुभगः । भुजस्तम्भालानामपि रमासिन्धुरवधू वशं नीता समिभजने ॥ १६८ ॥ छताकान्तारम्यास्तरूपरिजनाकीर्णवसुधा स्टीपासाशः कम दानन्दितभुवः । अरण्यानी मीरिव मुहुरूपाभिस्य हृदयं परस्थानावातेर्विजयि भवताम्मामकमिदम् ॥ १५९ ॥ इति विचिन्त्य विदूरितसंसारसुखसंकल्पश्वेतो विनिश्चित तपश्वरणकल्पः समाहूयाविराव निवारितनिखिखनस्वस्ति रहसि मामेवमबुधत्- 'समस्तारहस्योपाप प्रायोनिविनीताचारमपि शबकुमारमभिनवयौवनाइने यति सद्वृतोपपतिषु मनसि अन्धयति सन्मार्गदर्शनेषु लोचनयो:,
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तथा
एवं जिसका हृदय (चित्तवृत्ति ) परमात्मा के स्वरूप में स्थिर व लीन है और जिसने समस्त स्पर्शन- भाषि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है। अर्थात् जो जितेन्द्रिय है ' ।। १५७ ।। इति बोधि- अनुप्रेक्षा ||१२|| हे मासि महाराज ! मेरे पिता यशोर्घ महाराज ने जिसप्रकार उक्तप्रकार बारह भावनाओं का विषन किया उसी प्रकार सांसारिक सुख का संकल्प छोड़ते हुए म अपने मन में तपश्चरण (दीक्षा-धारण) करने का कल्प (विधि) निश्चय करते हुए उन्होंने निम्नप्रकार प्रशस्त विचार किया
मैंने इस तीन लोक को कीतिरूपी चन्द्रकान्तियों से विस्तृत होरही अमृत A ( गोरस - दुग्ध ) सरीखी वेगयुक्त वाष्टषाली जलशशि द्वारा उज्वल किये हुए गृहों की परिपूर्णता से मनोहर ( सर्वलोक को प्रीसिजनक ) कर दिया। अर्थात्-उज्वल कर दिया । इसीप्रकार युद्धाङ्गण पर अभिमानी शत्रुरूपी वृक्षों को भङ्ग करके लक्ष्मीरूपी हथिनी को अपने दक्षिण स्वरूप गजबन्धन- स्तम्भ से बाँधकर अपने वश में कर लिया || १४८ ॥
मेरा यह मन ऐसी विशाल वनस्थलियों को शर-बार प्राप्त करके परस्थान ( मोक्ष स्थान म दूसरे पक्ष शत्रु स्थान दुर्ग-आदि ) की प्राप्ति के फलस्वरूप विजयशाली होवे । जो ( बनस्थलियाँ) लतारूपी कमनीय कामिनयों से विशेष मनोहर हैं। जिनकी भूमियों वृक्षरूपी कुटुम्बी-जनों से व्याप्त है। जो पर्वतरूपी मन्दिरों से कुछ हैं। जिनकी भूमि मृगरूपी मित्रों से सुशोभित है एवं जो ऐसी राज्यलक्ष्मीसरीखी है, जो रमणीक रमाणयों से मनोश, कुटुम्बियों से व्याप्त पृथिवी वाली, पर्षत- सरीखे सुन्दर महलों से विभाषत और जिसकी भूमि मित्रों द्वारा आनन्द को प्राप्त कराई गई है ।। १५९ ।। तत्पश्चात् उन्होंने मुझे ऐसे एकान्त स्थान पर, जहाँ से समस्त लोक-समूह ( मन्त्री व पुरोहित आदि राज-कर्मचारी ) हटा दिये गये थे, शीघ्र बुलाकर निम्नप्रकार नैतिक शिक्षा दी ।
व
समस्त शास्त्रों के मर्म ( रहस्य ) का बार-बार अभ्यास करने के फलस्वरूप प्रशस्त विचारधारा से विभूषित हुए द्दे पुत्र ! ययाप प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली यह राज्यलक्ष्मी अभिलषित फल देनेवाली है मापि यह स्वभाविक विनयशील राजकुमार को भी प्राय: करके मानसिक वृत्ति द्वारा सदाचार महण करने मैं उसप्रकार धोखा देती है- सदाचार से बचत करती है जिसप्रकार नवीन तरुणी ( युवती स्त्री ) समाचार से वंचित रखती हैं। इसी प्रकार यह ( राज्य लक्ष्मी ) धर्म-मार्ग ( कर्तव्य-पथ ) के देखने में नेत्रों को
5. जाति अलंकार व अतिशयालंकार । २. रूपकालंकार | * कल्पे विकल्प कल्पा से मवासरं । शास्त्रे न्याये विधी इत्यनैकार्थः । A अमृतं यशशेषेऽम्बुसुधा मयाचिते । अकामनयं जग्ध र स्वादुनि रसायने ।
इथे गोरसे वेत्मनेकार्थः । अत्र गोरसचाची कुतः अतीव श्वेतस्यात् ।
३. रूपक व उपमालङ्कार ।
६. लि. सदि प्रतियों से संकलित - सम्पादक