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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये एतच्चासावुपनिशम्य प्रवेष्टहार कटक पानपुरःसरमेताननाम्रुमवलोक्य पुनश्च यः समभ्यणस्कीर्णतयावतीerrकर्णविशेर्णवदनस्य बेतालचक्रस्य प्रतिसंक्रान्त त्रिकटा चक्रवालः स्वधा राजलनिमग्नसन की कसकराल इत्र प्रतिबिम्बिताधान परिहविनोदपरिकल्पितकमलकामन इव, प्रतिमासमागताङ्गारनिभने अनिकरः प्रदर्शितकालोकाशालातर इव पुरुसोदर्शनप्रकाश केशप्रतिशरीर खुर्दशि ककलः प्रचलिता खिलरिपुलाकसन समर्थारानल इत्र, प्रतियानागताभोगनुः समाप्तित्रिपयदक्षरासक्षेत्र इव, अपि च यः स्वस्य स्वामिनो नृपज्ञावसरेषु निजप्रतापार्जनजनितसावित्र्य इव सर्व भुवनप्रचार कुतुति को विं' कुलदेवतास वरपराक्रमप्रसूतिप्रथमप्रजापतिरित्र, दुर्वारविस्पष्टोनगलद्धारादधिरोपहार दुर्ललितवी र लक्ष्मीसमाकमन्त्र इव सक्षम शौर्य सिद्धौषधसाध्यधावशीकरगोपदेश व समुपामशिरद्विषभर व्याजृम्भस्तम्भाविर्भ महासाहस व प्रसिलावनिपालविलासिनी विश्रमभ्रम ८४ प्रस्तुत मावित्त राजा ने उक्त तालिक द्वारा पढ़े हुए उक्त तीनों श्लोक सुनकर भुजाओं के सुवर्णमयी कङ्कणों का प्रदान पूर्वक उसके मुखकमल की ओर दृष्टिपात किया । तत्पश्चात् उसने अपने हस्त पर धारण किये हुए ऐसे को ऐसे से, जो रूपाणी के लिए बन्धनस्तम्भ सरीखा, व लक्ष्मी रूप लता का आलिङ्गन करने के द्देतु वृक्ष-सा है एवं जो कालकाल ( पंचमकाल ) रूप क्षुद्रकीड़ों द्वारा जीर्ण-शीर्ण होनेवाले भूमण्डल रूपी देवमन्दिर का उसप्रकार जीर्णोद्धार करता है जिसप्रकार महान् संभा, जीर्ण-शीर्ण मन्दिर का जीर्णोद्वार करता है। जो याचकों के मनोरथ उसप्रकार पूर्ण करता है जिसप्रकार कल्पवृक्ष याचकों के मनोरथ पूर्ण करता है। जिसके द्वारा शत्रुरूपी पर्वत उसप्रकार चूर-चूर किये जाते थे, जिसप्रकार बिजली के गिरने से पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं और जो पृथिवी मण्डल को कीड़ा कमल सरीखा धारण कर रहा है, निकालकर चण्डमारी देवी के मन्दिर में फेंक दिया और इसके बाद संचालित किये हुए एवं ऊपर उठाए हुए करकमल से यात्रा में पाये हुए समस्त लोगों का कोलाहल निराकरण करनेवाले उसने उस जोड़े को, अपनी तर्जनी अङ्गुलि के इशारे से आज्ञापित समीपवर्ती सेवक द्वारा बिछवाए हुए उत्तराय आसन पर भूले सरीखे हिलनेवाले मार-जड़ित सुवर्ण कुण्डलों की किरण-समूह द्वारा आकाश रूप वर्गीचे को पटवित करने से उत्पन्न हुई मनोज्ञता पूर्वक समय में बढाया । कैसा है बद्द तीक्ष्ण वन? - जिसमें ऐसे बेतालसमूह की, जो निकटवर्ती पाषाण घटित होने से प्रतिविम्बित हुआ था कपर्यन्त चमकते हुए मुख से व्याप्त था, अत्यन्त कुटिलतर दादों की पंक्ति प्रतिबिम्बित हो रही थी, इसलिए जो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों अपने धारारूपी जल में डूबे हुए (पाताल में प्राप्त हुए), शत्रुओं का हयों से ही भयङ्कर प्रतीत होरहा है। जिसमें ओठ चाटनेवाली जिह्वा श्रेणी प्रतिबिम्बित हुई थी, जिससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों - बलात्कार पूर्वक खींची हुई-चाटी पकड़कर लाई हुई - शत्रु-लक्ष्मी के विरह का दूर करने के लिए ही जिसमें कमल-वन रचा गया है। जिसमें अङ्गार- सरीखे नेत्रोंवाले राक्षस-विशेषों का मण्डल प्रतिबिम्ब होरहा था अतः जो ऐसा विदित हो रहा था मानों - शत्रुभूत राजाओं की मृत्यु सूचित करने के हेतु ही जिसमें उल्का जाल (अशुभ तारों) की श्रेणी का विशेष रूप से पतन उत्पन्न हुआ प्रकट किया गया है। जिसकी मूर्ति, बिलावों के नेत्र सरीखी कान्ति-युक्त (अनि ज्याला सरीखे ) केशोंषाले राक्षसों के प्रतिविम्बों से व्याप्त होने के कारण दुःख से भी नहीं देखी जासकती थी, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता धा-नानी — जिसमें ऐसी विशेष प्रचण्ड जठराग्मि, जो समस्त शत्रु-मण्डल को भक्षण करने में समर्थ हैं, चोपित की गई है। जिसके शरीर में कृष्ण शरीर का विस्तार प्रतिबिम्बित था अतः जो ऐसा प्रतीत होता था मानों -- जिसने शत्रु-घात करने में समर्थ राक्षस-भूमि ही संग्राम-निमित ग्रहण की है'। १. सालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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